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सोमवार, 6 अगस्त 2012

हिरोशिमा (Hiroshima by Ajneya)



एक दिन सहसा
सूरज निकला 
अरे क्षितिज पर नहीं,
नगर के चौक :
धूप बरसी
पर अंतरिक्ष से नहीं,
फटी मिट्टी से.

छायाएँ मानव-जन की 
दिशाहीन
सब ओर पड़ीं - वह सूरज
नहीं उगा था पूरब में, वह 
बरसा सहसा
बीचो-बीच नगर के :
काल-सूर्य के रथ के
पहियों के ज्यों अरे टूट कर
बिखर गये हों
दसों दिशा में.

कुछ क्षण का वह उदय-अस्त !
केवल एक प्रज्वलित क्षण की
दृश्य सोख लेने वाली दोपहरी.
फिर ?
छायाएँ मानव जन की 
नहीं मिटीं लम्बी हो-होकर
मानव ही सब भाप हो गये.
छायाएँ तो अभी लिखी हैं
झुलसे हुए पत्थरों पर 
उजड़ी सड़कों की गच पर.

मानव का रचा हुआ सूरज
मानव को भाप बना कर सोख गया.
पत्थर पर लिखी हुई यह
जली हुई छाया
मानव की साखी है.
               

कवि - अज्ञेय 
संकलन - सदानीरा, संपूर्ण कविताएँ-2
प्रकाशक - नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, 1986

दिल्ली-इलाहाबाद-कलकत्ता (रेल में) 10 -12 जनवरी, 1959 को लिखी गई कविता.

3 टिप्‍पणियां:

  1. मानव का रचा हुया सूरज
    मानव को भाप बनाकर सोख गया।
    पत्‍थर पर लिखी हुई यह
    जली हुई छाया
    मानव की साखी है

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  2. A poem must have somewhat traditional bonds. Only the breaking up of line after two or three words can't make something a poem. The figures of speech, the rhyme, the images,music etc are the applicable attributes of a poem. We must come out of our affirmation attitude or very soon we shall not be able even to get a shadow of poetry.

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  3. इस कविता को सौ बार पढ़ा होगा और हर बार इस कविता ने रुलाया है।

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