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रविवार, 29 सितंबर 2013

अलाव (Alaav by Ajneya)


           माघ : कोहरे में अंगार की सुलगन 
अलाव के ताव के घेरे के पार 
सियार की आँखों की जलन 
सन्नाटे में जब-तब चिनगी की चटकन 
सब मुझे याद है ! मैं थकता हूँ 
पर चुकती नहीं मेरे भीतर की भटकन !


कवि -  अज्ञेय 
संकलन - चुनी हुई कविताएं 
प्रकाशक - राजपाल एंड सन्ज, दिल्ली, 1987

शनिवार, 28 सितंबर 2013

आने दो (Aane do by Ashok Vajpeyi)

आने दो
जितनी हवा 
एक थोड़ी-सी खुली खिड़की से आ सकती है 
उतनी हवा। 

आने दो 
जितना पानी 
एक नन्ही सी रमझिरिया से रिस सकता है 
उतना पानी। 

आने दो  
उतनी आग 
एक सिकुड़ते हृदय की कामाग्नि से छिटक सकती है 
उतनी आग। 

आने दो 
कविताओं में र्च न हो पाएँ
उतने शब्द। 

इतना सब अगर आ गया 
तो दुनिया भरपूर रहेगी 
और कविता भी,
उतनी दुनिया, उतनी कविता !
                                - 26.5.2012


कवि - अशोक वाजपेयी 
संकलन - कहीं कोई दरवाज़ा 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2013
                               - 

गुरुवार, 26 सितंबर 2013

सीता का गर्भ-धारण (Sita ka garbh-dharan in Navnita Dev Sen's novel)


क.     सीता मइया आपके कितने माह हुए पार 
ख.     एक माह, दो माह, तीन माह भये पार 
क.     तीन माह पार भये, सीता ही जाने 
         खाने को क्या-क्या चाहें, कोई ना जाने 
ख.     सीता मइया पीना चाहें बाघ का दूध एक बार 
क.     गज़ब का साध, भइया, किया स्वीकार 
         उनका देवरा लछमण, सब गुण आगर 
         लावेंगे बाघ के दूध का सागर 
ख.     बाघ के शिकार को, लछमण गये वन में 
         ले आये बाघ का दूध साल-पत्ते के दोने में 
         खुश-खुश बोले - भाभी आँखी खोलो, लो, अपनी चीज़ 
         जो तुमने खाना चाहा, लो, हुआ वो नसीब !
क.     बाघ-दूध पीकर, जुड़ाये सीता के प्राण 
         ला दो, एक और चीज़, देवरा, मेरा कहा मान 
         अरज करूं, देवरा, एक चीज़ ला दो 
         दरिया के बीचोबीच है, बड़ा-सा बालुचर 
         वहाँ खड़ा सागौन का विशाल, एक पेड़ घना 
         उस महावृक्ष पर मधुमाखी का छत्ता तना
         लाओ उस छत्ते से मधु निचोड़कर भइया 
         सादा दोसे में मधु मिलाकर खावेंगी, मइया 
ख.     दोसे के साथ और क्या चाहें सीता मइया
         राजमा-सेम का सांभर - सीता जी ने देवर से कहा 
         हरिख-हरखि लछमण दौड़े वन में दुबारा 
         भउजी की शुभ कोख-साध करें पूरा 
क.     सासु कौसल्या तक खबर जब आया 
         सीता मइया का चाव सुन, बूढ़ी ने फरमाया 
ख.     होठ बिचकाकर, राम की जननी ने कहा 
         सात जनम में ऐसी विचित्र साध सुनी कहाँ। 
         हम सबन की कोख में भी आया शिशु कई बार 
         खाया माटी का धेला और इमली का अचार 
         कच्चा आम संग नून-मिर्चा भी खाया 
         बासी मट्ठा, साग संग, हिया का चाव मिटाया 
         हमने भी राम-लछमण को दिया जनम 
         मगर ऐसी हुड़क, बहिनी, हमने देखी है कम 
         इत्तनी कदर, कुल तीन महिन्ने के शिशु के लिए ?
         ओके लिए सीता बहू चाहे, बाघ का दूध पीये 
         मोरे बच्चे ने रखा पैर और कुल तीस बरस में 
         जाने काहे ई भला बाघ-सिंही के मांद में 
क.     सुनकर सीता अम्मा के कोख की साध 
         बूढ़ी सासु कौसल्या ने सुनायी सौ-सौ बात !


लेखिका - नवनीता देव सेन 
किताब - वामा-बोधिनी 
हिन्दी अनुवाद - सुशील गुप्ता
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2004

नवनीता देव सेन के इस उपन्यास के बारे में किताब के ब्लर्ब में यह सूचना दी गयी है - "रिसर्च के दौरान लिए गए नोट्स, डायरी के पन्ने, प्रेमियों के ख़त, ग्रामीण बालाओं के  गीत, नायिका की विचारधारा, सम्पादक का जवाब - इन सबको मिलाकर इस कथा में, बिलकुल नए रूप में, बेहद सख्त, लेकिन बहुमुखी सत्य का सृजन किया गया है"।

मंगलवार, 24 सितंबर 2013

हम जियें न जियें दोस्त (Hum jiyein na jiyein dost by Kedarnath Agrawal)

हम जियें न जियें दोस्त
तुम जियो एक नौजवान की तरह,
खेत में झूम रहे धान की तरह,
मौत को मार रहे बान की तरह l
हम जियें न जियें दोस्त 
तुम जियो अजेय इंसान की तरह 
मरके इस रण में अमरण
आकर्ण तनी 
       कमान की तरह !   
                            - 9.8.1961

कवि - केदारनाथ अग्रवाल 
संकलन - प्रतिनिधि कविताएँ 
संपादक - अशोक त्रिपाठी 
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, 2012

सोमवार, 23 सितंबर 2013

चुटपुटिया बटन (Chutputiya button by Anamika)


मेरा भाई मुझे समझाकर कहता था – ‘जानती है, पूनम –
तारे हैं चुटपुटिया बटन
रात के अँगरखे में टंके हुए !’
मेरी तरफ ‘प्रेस’ बटन को
चुटपुटिया बटन कहा जाता था,
क्योंकि ‘चुट’ से केवल एक बार ‘पुट’ बजकर
एक-दूसरे में समा जाते थे वे l

वे तभी तक होते थे काम के
जब तक उनका साथी
चारों खूँटों से बराबर
उनके बिलकुल सामने रहे टंका हुआ !

ऊँच-नीच के दर्शन में उनका कोई विश्वास नहीं था !
बराबरी के वे कायल थे !
फँसते थे, न फँसाते थे-चुपचाप सट जाते थे l
मेरी तरफ प्रेस-बटन को चुटपुटिया बटन कहा जाता था,
लेकिन मेरी तरफ से लोग खुद भी थे
चुटपुटिया बटन
‘चुट’ से ‘पुट’ बजकर सट जाने वाले l

इस शहर में लेकिन ‘चुटपुटिया’ नजर ही नहीं आते –
सतपुतिया झिगुनी की तरह यहाँ एक सिरे से गायब हैं
चुटपुटिया जन और बटन l
ब्लाउज में भी दर्जी देते हैं टाँक यहाँ हुक ही हुक
हर हुक के आगे विराजमान होता है फँदा,
फँदे में फँसे हुए आपस में कितना सटेंगे –
कितना भी कीजिए जतन –
चुट से पुट नहीं ही बजेंगे !


कवयित्री - अनामिका
किताब - अनामिका : पचास कविताएँ, नयी सदी के लिए चयन  
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, 2012

 

शनिवार, 21 सितंबर 2013

तिरहुति (Tirhuti, Maithili folksong)

कमल नयन मनमोहन रे 
कहि गेलाह अनेके 
कतेक दिवस हम खेपब रे 
हुनि वचनक टेके
जहँ-जहँ हरिक सिंहासन रे 
आसन तेहि ठामे 
तहाँ कते व्रजनागरि रे 
लय-लय हरिनामे 
आँगन मोर लेखे विजुवन रे 
भेल दिवस अन्हारे 
सेज लोटय कारि नागिन रे 
कोना सहु दुख-भारे 
मलिन वसन तन भूषण रे 
शिर फूजल केशे 
नागरि पुछथि पथिक सँ रे 
कहु हरिक उदेशे 
के पाती लै जायत रे 
जहाँ बसे नन्दलाले 
लोचन हमर विकल भेल रे 
छाती देल शाले 
'साहेबराम' रमाओल रे 
सपना संसारे 
फेरि नहिं एहि जग जनमब रे 
मानुष अवतारे 

कमलनयन मनमोहन अनेक प्रकार की सांत्वना दे कर चले गए l 
उनके वचन पर निर्भर रह कर मैं अब और कितने दिन उनके पथ पर आँखें बिछाऊँ l जहाँ-जहाँ हरि का सिंहासन है, वहाँ-वहाँ मेरा आसन भी है और वहाँ ही अनेक व्रजांगनाएँ हरि का नाम ले-लेकर वास करती हैं l 
मेरे लिए मेरा आँगन निर्जन वन है, और श्रीकृष्ण की अनुपस्थिति में मेरे लिए दिन का प्रकाश भी अन्धकार-सा प्रतीत होता है l 
उनके विरह में मेरे बिखरे हुए कुन्तल-कलाप काली नागिन की तरह बल खा रहे हैं l 
हाय ! मैं इस दुख का भार किस प्रकार वहन करूँ ? मेरे शरीर के वसन और भूषण मलिन हो चले और मेरे शिर के बाल भी अस्त-व्यस्त हो गए l 
उस ओर से आये हुए पथिकों से सुन्दरी जिज्ञासा करती है कि कहो मेरे प्राणाधार श्रीकृष्ण कैसे हैं ?
हाय ! जहाँ नन्द-नन्दन रहते हैं, वहाँ उनके पास मेरा सन्देश कौन ले जाय ? उन्हें देखने के लिए मेरी आँखें तरस रही हैं, और उनकी याद कलेजे में शूल पैदा करती है l 
'साहेबराम' कवि कहते हैं कि यह संसार स्वप्नमय है l इस संसार में नरतन धारण कर फिर नहीं जन्म लूँगा l
संग्रह - मैथिली लोकगीत 

संग्रहकर्ता और संपादक - राम इकबाल सिंह 'राकेश' 

प्रकाशक - हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग

शुक्रवार, 20 सितंबर 2013

कोई दिन और (Koi din aur by 'Akhtar' Sheerani)

ग़मख़ान-ए- हस्ती में हैं मेहमाँ कोई दिन और 
कर ले हमें तक़दीर परीशाँ कोई दिन और 

तुरबत वो जगह है की जहाँ ग़म है न हैरत 
हैरतकद-ए-ग़म में हैं हैराँ कोई दिन और 

यारों से गिला है न अज़ीज़ों से शिकायत 
तक़दीर में है हसरतो-हिरमाँ कोई दिन और 

पामाले-ख़िजाँ होने को हैं मस्त बहारें 
है सैरे-गुलो-हुस्ने-गुलिस्ताँ कोई दिन और 

मर जाएँगे जब हम तो बहुत याद करेगी 
जी भर के सता ले शबे-हिजराँ कोई दिन और 

आज़ाद हूँ आलम से तो आज़ाद हूँ ग़म से 
दुनिया है हमारे लिए ज़िन्दाँ कोई दिन और 

हस्ती कभी क़ुदरत का इक एहसान थी हम पर
अब हम पे है क़ुदरत का ये एहसाँ कोई दिन और 

लानत थी गुनाहों की नदामत मिरे हक़ में 
है शुक्र की इसमें हैं पशेमाँ कोई दिन और 


'शेवन' को कोई ख़ुल्दे-बरीं में ये ख़बर दे 
दुनिया में अब 'अख़्तर' भी है मेहमाँ कोई दिन और 


ग़मख़ान-ए- हस्ती  = जीवन रूपी दुखों का आगार  ; तुरबत = क़ब्र ; हैरतकद-ए-ग़म = दुखों का आश्चर्यलोक ; हसरतों-हिरमाँ = अधूरी इच्छाएँ और दुख ; पामाले-ख़िजाँ = पतझड़ से पामाल ; सैरे-गुलो-हुस्ने-गुलिस्ताँ= फूलों की सैर और उपवन की सुन्दरता ; शबे-हिजराँ= वियोग की रात ; ज़िन्दाँ = क़ैदखाना ; नदामत = शर्मिन्दगी ; पशेमाँ = शर्मिन्दा ; शेवन = एक शायर का उपनाम ; ख़ुल्दे-बरीं = सबसे ऊँचे स्वर्ग में


शायर - 'अख़्तर' शीरानी संकलन - प्रतिनिधि शायरी : 'अख़्तर' शीरानी
संपादक - नरेश 'नदीम'

प्रकाशक - राधाकृष्ण पेपरबैक्स, दिल्ली, पहला संस्करण - 2010

गुरुवार, 19 सितंबर 2013

फूल खिलते ही रहे (Phool khilte hi rahe by Makhdoom Mohiuddin)

फूल खिलते ही रहे, कलियाँ चटकती ही रहीं 
दिल धड़क जाए तो हासिल ? आँख भर आई तो क्या l 

शाम सुलगाती चली आती है, ज़ख़्मों के चिराग़ 
कोई जाम आया तो क्या, कोई घटा छाई तो क्या l 

काकुलें लहराईं, रातें महकीं, पैराहन उड़े 
एक उनकी याद ऐसी थी, नहीं आई तो क्या l 

दूरियाँ बढ़ती भी हैं, घटती भी हैं, मिटती भी हैं 
साअतें आईं, यही साअत नहीं आई तो क्या l 


साअतें = क्षण 


शायर - मख़्दूम मोहिउद्दीन 
संकलन - सरमाया : मख़्दूम मोहिउद्दीन 
संपादक - स्वाधीन, नुसरत मोहिउद्दीन 
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण - 2004

बुधवार, 18 सितंबर 2013

जीवन बीता चम्मच चम्मच (Jeevan beeta chammach chammach by Mamta Kalia)


पढ़ा लिखा कुछ काम न आया 
जीवन बीता चम्मच चम्मच 
सोच विचार विमर्श त्याग कर 
जीवन रीता चम्मच चम्मच

बालम ने बहकाया हमको 
चूल्हे ने दहकाया हमको 
निभी नौकरी लश्टम पश्टम 
समय सारिणी भारी भरकम 
खड़ी कतारें कर्तव्यों की 
सुख और हक़ के लट्टू मद्धम 
कब हम जीते कब हम हारे 
कौन हिसाब रखे सरपंचम 

अब हमने सिर तान लिया है 
मन में निश्चय ठान लिया है 
अपनी मर्ज़ी आप जियेंगे 
जीवन की रसधार पियेंगे 
कलश उठाकर, ओक लगाकर 
नहीं चाहिए हमें कृपाएँ 
करछुल करछुल चम्मच चम्मच l



कवयित्री - ममता कालिया 
किताब - ममता कालिया : पचास कविताएँ, नयी सदी के लिए चयन  प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2012

मंगलवार, 17 सितंबर 2013

प्राणों के पाहुन (Pranon ke pahun by Balkrishn Sharma 'Naveen')


प्राणों के पाहुन आए औ' चले गए इक क्षण में
हम उनकी परछाईं ही से छले गए इक क्षण में l

कुछ गीला-सा, कुछ सीला-सा अतिथि-भवन जर्जर-सा
आँगन में पतझर के सूखे पत्तों का मर्मर-सा,
आतिथेय के रुद्ध कंठ में स्वागत का घर्घर-सा,
यह स्थिति लखकर अकुलाहट हो क्यों न अतिथि के मन में ?
प्राणों के पाहुन आए औ' लौट चले इक क्षण में l

शून्य अतिथिशाळा यह हमने रच-पच क्यों न बनाई ?
जंग को अपनी शिल्प-चातुरी हमने क्यों न जनाई ?
उनके चरणागमन-स्मरण में हमने उमर गँवाई ;
अर्घ्य-दान कर कीच मचा दी हमने अतिथि-सदन में ;
प्राणों के पाहुन आए औ' लौट पड़े इक क्षण में l 

वे यदि रंच पूछते : क्यों है अतिथि-कक्ष यह सीला ?
वे यदि तनिक पूछते : क्यों है स्फुरित वक्ष यह गीला ?
तो हो जाता ज्ञात उन्हें : है यह उनकी ही लीला ;
है पंकिलता आज हमारी माटी के कण-कण में,
प्राणों के पाहुन आए औ' लौट चले इक क्षण में l

अतिथि निहारें आज हमारी रीती पतझड़-बेला,
आज दृगों में निपट दुर्दिनों का है जमघट-मेला ;
झड़ी और पतझड़ से ताड़ित जीवन निपट अकेला ;
हम खोए-से खड़े हुए हैं एकाकी आँगन में,
प्राणों के पाहुन आए औ' लौट चले इक क्षण में l
                                              - 6 मई, 1948


कवि - बालकृष्ण शर्मा 'नवीन'
संकलन - आज के लोकप्रिय हिन्दी कवि : 'नवीन'
संपादक - भवानीप्रसाद मिश्र 
प्रकाशक - राजपाल एण्ड सन्ज़, दिल्ली

रविवार, 15 सितंबर 2013

हज़ल (Hazal by Meeraji)

जीना जीना कहते हो, कुछ लुत्फ़ नहीं है जीने में 
साँस भी अब तो रुक-रुककर चलता है अपने सीने में 

हम तो तुम्हें दाना समझे थे, भेद की बात बता ही दी 
इस दिन को हम कहते थे क्या फ़ायदा ऐसे पीने में!

बढ़े जो चाह तो बढ़ती जाए, घटे तो घटती जाती है 
दिल में चाह की बात है ऐसी जैसे चाँद महीने में 

कोठा-अटारी, मंजिल भारी, हौसले जी के निकालेंगे 
सामना उनसे अचानक हो जाए जो किसी दिन ज़ीने में 

जब जी चाहा, जिसको देखा, दिल ने कहा ये हासिल है 
कैसे-कैसे हीरे रक्खे हैं यारों के दफ़ीने में 

मेरा दिल तो मेरा दिल है, सबका दिल क्यों बनने लगा !
जामे-जम का हर इक जल्वा है मिरे दिल के नगीने में 

हम तो अपनी आँख के रोगी, दुश्मन दुश्मन की जाने 
चाहत की कैफ़ीयत है ये, बात नहीं वो कीने में 

औरों के आईने में तू अपनी मूरत देखेगा 
हर इक सूरत झूम उठेगी जब मेरे आईने में 

'मीराजी' ने बात कही जो, ज्ञानी खोज लगाएँगे 
कहनेवालों की आँखों में, सुननेवाले के सीने में 

दाना = बुद्धिमान 
दफ़ीने = गड़े खजाने में 
जामे-जम = ईरानी बादशाह जमशेद का जाम जिसमें वह सबकुछ देख सकता था 

उर्दू शायरी में हज़ल के तीन अर्थ प्रचलित हैं : उलटबानी जैसी शायरी, बेतुकी शायरी या अश्लील शायरी। हज़लें ग़ज़ल की विधा में भी कही जा सकती हैं या किसी और विधा में भी। हज़ल को एक गंभीर साहित्यिक विधा नहीं माना जाता। हज़ल कहना कभी-कभी शायर के लिए सिर्फ़ मनबहलाव का साधन होता है।  मीराजी की अभी तक पाँच ही हज़लें उपलब्ध हैं। 

शायर - मीराजी 
संकलन - प्रतिनिधि शायरी : मीराजी 
संपादक - नरेश 'नदीम'
प्रकाशक - समझदार पेपरबैक्स, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2010

शनिवार, 14 सितंबर 2013

आहिस्ता मत चलो (Aahista mat chalo by Sarveshvar Dayal Saxena)

 
आहिस्ता मत चलो 
दौड़ो l 
 
अब कुछ भी सोचने का समय नहीं रहा l 
 
अनाज से भरी मालगाड़ी 
साँप-सी सिगनल पर खड़ी है 
उसकी पूँछ पकड़कर 
जोर से घुमाओ और पटक दो l 
 
साहस और तेज गति -
बिना हथियारों के भी 
इसी के सहारे तुम विषधर मारते रहे हो l 
 
आहिस्ता मत चलो
दौड़ो l 
 
ज्यादा सोचना भय को निमन्त्रण देना है 
और धीरे चलना अवसर चूक जाना l 
मैं जानता हूँ तुम्हारे हाथों में 
अभी कोई झण्डा नहीं है,
भूखे और असहाय आदमी को 
किसी झण्डे की जरूरत भी नहीं होती l 
अपने उस साथी की 
तार-तार फटी, खून से रँगी कमीज को 
एक बाँस में लपेट ऊँचा उठा लो 
जिसे कल अकेले वैगन लूटते समय 
गोली मार दी गयी थी l 
 
आहिस्ता मत चलो
दौड़ो l 
सब एक साथ मिलकर 
दौड़ो l 
 
नहीं तो मालगाड़ी राजधानी पहुँच जायेगी 
और लौटने पर तुम्हें अपनी झोंपड़ियों में 
बच्चों और वृद्धों की लाशें ही मिलेंगी l
 
 
 
 
कवि - सर्वेश्वरदयाल सक्सेना 
संकलन - खूँटियों पर टँगे लोग
प्रकाशन - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 1982

गुरुवार, 12 सितंबर 2013

ओ साँइयाँ (O saniyan by Ajneya)


झील पर अनलिखी 
लम्बी हो गयीं परछाइयाँ
गहन तल में 
कँपी यादों की सुलगती झाँइयाँ 
आह ! ये अविराम अनेकरूप विदाइयाँ !
इस व्यथा से ओट दे ओ साँइयाँ !


कवि - अज्ञेय 
संकलन - ऐसा कोई घर आपने देखा है 
प्रकाशक - नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, 1986

आज विनोद रैना को भी विदा कर आए हम !

बुधवार, 11 सितंबर 2013

पुलिस आगे बढ़ी … (Police aage badhi by Nagarjun)

चंदन का चर्खा निछावर है इस्पाती बुलेट पर 
निछावर है अगरबत्ती चुरुट पर, सिग्रेट पर 
नफ़ाखोर हँसता है सरकारी रेट पर 
फ्लाई करो दिन-रात, लात मारो पब्लिक के पेट पर !

पुलिस आगे बढ़ी -
क्रांति को संपूर्ण बनाएगी 
गुमसुम है फौज -
वो भी क्या आजादी मनाएगी 
बँध गई घिग्घी -
माथे में दर्द हुआ 
नंगे हुए इनके वायदे -
नाटक बे-पर्द हुआ !

मिनिस्टर तो फूकेंगे अंधाधुंध रकम 
सुना करेगी अवाम बक-बक-बकम 
वतन चुकाएगा जहालत की फीस 
इन पर तो फबेगी खादी नफ़ीस !
धंधा पालिटिक्स का सबसे चोखा है 
बाकी तो ठगैती है, बाकी तो धोखा है 
कंधों पर जो चढ़ा, वो ही अनोखा है
हमने कबीर का पद ही तो धोखा है !
                                         - 1978



कवि - नागार्जुन 
किताब - नागार्जुन रचनावली, खंड 2
संपादन-संयोजन - शोभाकांत 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2003

मंगलवार, 10 सितंबर 2013

अकेले पेड़ों का तूफ़ान (Akele pedon ka toofan by Vijay Dev Narayan Sahi)


फिर तेज़ी से तूफ़ान का झोंका आया 
और सड़क के किनारे खड़े 
सिर्फ़ एक पेड़ को हिला गया 
शेष पेड़ गुमसुम देखते रहे 
उनमें कोई हरकत नहीं हुई l 

        जब एक पेड़ झूम झूम कर निढाल हो गया 

        पत्तियाँ गिर गयीं 
        टहनियाँ टूट गयीं 
        तना ऐंचा हो गया 
        तब हवा आगे बढ़ी 
        उसने सडक के किनारे दूसरे पेड़ को हिलाया 
        शेष पेड़ गुमसुम देखते रहे 
        उनमें कोई हरकत नहीं हुई l 

इस नगर में 
लोग या तो पागलों की तरह 
उत्तेजित होते हैं 
या दुबक कर गुमसुम हो जाते हैं l 
जब वे गुमसुम होते हैं 
तब अकेले होते हैं 
लेकिन जब उत्तेजित होते हैं 
तब और भी अकेले हो जाते हैं l


कवि - विजय देव नारायण साही 
संग्रह - साखी
प्रकाशन - सातवाहन पब्लिकेशन्स, दिल्ली, 1983

रविवार, 8 सितंबर 2013

गुलाब सरेवार (Gulab Sarewar by Shantanu and Ganganand Jha)



भाँग की चर्चा होने पर एक खास व्यक्ति का ख्याल स्वतः ही मस्तिष्क में आ जाता है l ठीक जैसे देवघर की चर्चा हो और पण्डों की नहीं, पण्डों की चर्चा हो और भाँग की नहीं, उसी प्रकार भाँग की चर्चा हो और गुलाब सरेवार की नहीं, ऐसा हो नहीं सकता l जी हाँ, भाँग और गुलाब एक दूसरे के पूरक बन चुके थे l जितने अच्छे कलाकार वे थे, उतने ही अच्छे फ़ुटबॉल के खिलाड़ी l सेण्टर-हाफ का उनका चिर-सुरक्षित स्थान, और कालीरेखा टीम के वे दुर्भट प्रहरी l विपक्षी टीम के सामने हिमालय पहाड़ बनकर खड़े रहते, तेज से तेज फॉरवर्ड भी उन्हें भेद न सका l वहाँ भी उनका भाँग का साथ नहीं छूटा l मध्याह्न में जब दूसरे खिलाड़ी नीम्बू-पानी पी रहे होते उनका दोस्त भाँग की एक छोटी सी गोली उन्हें ला देता l
यों भाँग की वजह से उन्हें कई बार खामियाजा भी भुगतना पड़ा था l ...तब मन्दिर के प्रांगण में बांग्ला जात्रा (खुले आसमान के नीचे आयोजित नाटक) का आयोजन प्रायः ही किया जाता था l पण्डों की खूबी यह थी कि वे हिन्दी ठीक से भले न बोल पाते, पर बांग्ला धड़ल्ले से बोल लेते थे l वहाँ की संस्कृति बांग्ला-संस्कृति से काफी प्रभावित थी l उस जात्रा में गुलाब सरेवार विश्वामित्र की भूमिका निभा रहे थे l विश्वामित्र तपस्या में लीन थे और मेनका उनको रिझाने का भरसक प्रयत्न कर रही थी l नाचते-नाचते मेनका थक गयी, फिर भी प्रॉम्पटर के लाख बोलने के बावजूद, विश्वामित्र की तपस्या भंग न हुई l लाचार होकर सूत्रधार ने एक बड़े डंडे का सहारा लिया और उनकी पीठ पर जोर से धक्का दिया l हुआ यों था कि उस दिन गुलाबजी ने कुछ ज्यादा ही बड़ा भंग का गोला छन लिया था, इसका नतीजा हुआ कि तपस्या की मुद्रा में आँखें बन्द करते ही भाँग ने अपना असर दिखाना शुरू कर दिया l गुलाबजी गहरी नींद में सो गये l बाँस का धक्का दिए जाने के बाद वे चौंक उठे l संवाद तो याद नहीं रहा, अनायास उनके मुँह से निकल पड़ा, “मुझे किसने हुरकुच्चा ?” (हुरकुचना स्थानीय बोली में डण्डे से जोर से कोंचने के अर्थ में इस्तेमाल होता है) दर्शकों में हँसी का फव्वारा फूट पड़ा और सूत्रधार को बीच में ही पटाक्षेप करना पड़ा l फिर क्या था, दूसरे दिन से महीनों तक गुलाबजी का वह वाक्य पूरे शहर में गूँजता रहा और लोग लोट-पोट होते रहे l

लेखक – शान्तनु, गंगानन्द झा
किताब – भाजो का कुनबा
(पण्डा समाज की संस्कृति का संस्मरणात्मक दस्तावेज)
प्रकाशक – अनन्य प्रकाशन, दिल्ली, 2013