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मंगलवार, 29 जुलाई 2014

मच्छर के मुँह से शहनाई (Machchhar ke munh se shahnai by Ramjiwan Sharma 'Jiwan')



वे     क्या     जानें     पीर     पराई 
हाज़िर रहता जिनकी खिदमत में 
हर       वक्त      जहाज      हवाई 
                             जो  न  कभी   भू  पर पग  रखते 
                             स्वाद स्वर्ग का निशिदिन चखते 
                             पाँवदान  की  यात्रा  का  अनुभव 
                             उनको       कैसे       हो        भाई 
उड़ती  धूल   धरती  पर  कैसे 
देती    बालों  को   भर    कैसे 
कठिन हिमालय-आरोहण से 
ज्यादा बस की विमल चढ़ाई 
                               जनता    कैसे   लेती   राशन 
                               कितना महँगा  बर्तन-बासन 
                               इसका    पता     उन्हें    कैसे 
                               जिनको दो दर्जन नौकर-दाई 
वे  क्या  जानें  हैं  क्या  जाड़ा
है पुआल - पावक क्यों प्यारा 
जिनके  तन  के नीचे  तोशक 
ऊपर    से   मखमली   रजाई 
                               जो  गर्मी  में   राँची  जाकर 
                               समय काटते मौज उड़ाकर 
                               उन्हें पता क्या बजती कैसे 
                               मच्छर  के  मुँह से शहनाई 
जो  न  अन्न  खाकर जीते हैं 
मधुर फलों का रस-भर पीते 
चाय     उपजानेवालों      की 
क्यों   वे  करने  चलें  भलाई 
                                तन कैसे छिलता जहाज पर 
                                घिस  जाते  कैसे  दुर्बल नर
                                चढ़ती  और  उतरती वेला में 
                                होती    किस   भाँति   लड़ाई 


कवि - रामजीवन शर्मा 'जीवन'
संपादक - नंदकिशोर 'नवल'
प्रकाशक - सारांश प्रकाशन, दिल्ली, 1996

शनिवार, 26 जुलाई 2014

बगिया लहूलुहान (Bagiya lahuluhan by Habeeb 'Jalib)


हरियाली  को  आँखें  तरसें,  बगिया  लहूलुहान 
प्यार के गीत  सुनाऊँ किसको, शहर हुए वीरान 
                                           बगिया लहूलुहान 

डसती  हैं  सूरज  की  किरनें,  चाँद  जलाए जान 
पग-पग मौत के गहरे साये, जीवन मौत समान 
चारों  ओर  हवा  फिरती  है लेकर  तीर - कमान 
                                           बगिया लहूलुहान 

छलनी हैं कलियों के सीने, ख़ून में लतपत पात 
और न  जाने कब तक होगी  अश्कों की बरसात 
दुनियावालो  कब  बीतेंगे  दुख  के ये दिन - रात 
ख़ून  से  होली  खेल   रहे  हैं  धरती  के  बलवान 
                                           बगिया लहूलुहान 




शायर - हबीब 'जालिब'
संकलन - प्रतिनिधि शायरी : हबीब 'जालिब'
संपादक - नरेश नदीम 
प्रकाशक - समझदार पेपरबैक्स, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2010 

शुक्रवार, 25 जुलाई 2014

प्रथम किरण (Pratham kiran by Ajneya)

भोर की 
प्रथम किरण 
          फीकी :
अनजाने 
जागी हो 
याद 
         किसी की -

अपनी
मीठी 
        नीकी !
धीरे-धीरे 
उदित 
रवि का 
लाल-लाल 
        गोला 
चौंक कहीं पर 
छिपा 
मुदित 
बन-पाखी 
        बोला 
दिन है 
जय है 
यह बहु-जन की :

प्रणति 
लाल रवि,
ओ जन-जीवन 
लो यह 
मेरी 
सकल साधना 
         तन की 
         मन की -

वह बन-पाखी 
जाने गरिमा 
महिमा 
मेरे छोटे 
चेतन 
         छन की !



कवि - अज्ञेय 
संकलन - चुनी हुई कविताएं 
प्रकाशक - राजपाल एंड सन्ज, दिल्ली, 1987 



मंगलवार, 22 जुलाई 2014

कबित (Kabit by Ibne Insha)

 जले तो जलाओ गोरी, पीत का अलाव गोरी 
                 अभी न बुझाओ गोरी, अभी से बुझाओ ना। 
पीत में बिजोग भी है, कामना का सोग भी है। 
                  पीत बुरा रोग भी है, लगे तो लगाओ ना। 
गेसुओं की नागिनों से, बैरिनों अभागिनों से 
                  जोगिनों बिरागिनों से, खेलती ही जाओ ना। 
आशिक़ों का हाल पूछो, करो तो ख़याल - पूछो 
                  एक-दो सवाल पूछो, बात तो बढ़ाओ ना। 


रात को उदास देखें, चाँद का निरास देखें 
                  तुम्हें न जो पास देखें, आओ पास आओ ना। 
रूप-रंग मान दे दें, जी का ये मकान दे दें 
                  कहो तुम्हें जान दे दें, माँग लो लजाओ ना। 
और भी हज़ार होंगे, जो कि दावेदार होंगे 
                  आप पे निसार होंगे, कभी आज़माओ ना। 
शे'र में 'नज़ीर' ठहरे, जोग में 'कबीर' ठहरे 
                  कोई ये फ़क़ीर ठहरे, और जी लगाओ ना। 


शायर - इब्ने इंशा (1927-1978)
किताब - इब्ने इंशा : प्रतिनिधि कविताएँ 
संपादक - अब्दुल बिस्मिल्लाह 
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, पहला संस्करण - 1990 

इस कबित (कवित्त) को नैय्यरा नूर ने कमाल का गाया है ! 


सोमवार, 21 जुलाई 2014

छाता (Chaataa by Ashok Vajpeyi)

छाते के बाहर ढेर सारी धूप थी 
छाता - भर धूप सिर पर आने से बच गई थी l 
तेज़ हवा को छाता 
अपने भर रोक पाता था l 
बारिश में इतने सारे छाते थे
कि लगता था कि लोग घर पर बैठे हैं 
और छाते ही सड़क पर चल रहे हैं l 
अगर धूप तेज़ हवा और बारिश न हो 
तो किसी को याद नहीं रहता 
कि छाता कहाँ दुबका पड़ा है l 
                      - 28. 7. 2010



कवि - अशोक वाजपेयी   
संकलन - कहीं कोई दरवाज़ा   
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2013

सोमवार, 14 जुलाई 2014

परछाईं (Parchhain by Mangalesh Dabaral)


परछाईं उतनी ही जीवित है 
जितने तुम 

तुम्हारे आगे-पीछे 
या तुम्हारे भीतर छिपी हुई 
या वहां जहां से तुम चले गये हो 
                                        - 1975 


कवि - मंगलेश डबराल 
संकलन - पहाड़ पर लालटेन 
प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, तीसरा संस्करण - 2014 

सोमवार, 7 जुलाई 2014

नींद उड़ गई है ! (Neend ud gai hai by Ramgopal Sharma 'Rudra')


नींद उड़ गई है !

       उगते अस्त हुआ रवि जिस दिन 
       आँधी उठी, उड़े सुख के तृण ;
       सिमट गए सब दृश्य ; किस कदर 
                  दृशि सिकुड़ गई है !

      बहार कोई क्या पहचाने !
      घायल की घायल ही जाने ;
      मृग से उसकी नाभि, सर्प से 
                  मणि बिछुड़ गई है !

      भीतर जैसी है यह माटी,
      कैसे निकले, ऐसी काँटी ?
      वज्रहृदय में गड़कर कोई 
                  याद मुड़ गई है !

                                - 1977 


कवि - रामगोपाल शर्मा 'रुद्र'
किताब - रुद्र समग्र 
संपादक - नंदकिशोर नवल 
प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 1991 





रविवार, 6 जुलाई 2014

चांद (Chand by Parveen Shakir)

पूरा दुख और आधा चांद
हिज्र की शब और ऐसा चांद

दिन में वहशत बदल गयी थी
रात हुई और निकला चांद

किस मक़तल से गुज़रा होगा
इतना सहमा सहमा चांद

यादों की आबाद गली में
घूम रहा है तन्हा चांद

मेरी करवट पर जाग उठे
नींद का कितना कच्चा चांद

मेरे मुंह को किस हैरत से
देख रहा है भोला चांद

इतने घने बादल के पीछे
कितना तन्हा होगा चांद

आंसू रोके नूर नहाए
दिल दरिया, तन सहरा चांद

इतने रौशन चेहरे पर भी
सूरज का है साया चांद

जब पानी में चेहरा देखा
तूने किसको सोचा चांद

बरगद की एक शाख़ हटा कर 
जाने किसको झांका चांद

बादल के रेशम झूले में 
भोर समय तक सोया चांद

रात के शानों पर सर रक्खे 
देख रहा है सपना चांद

सूखे पत्तों के झुरमुट में 
शबनम थी या नन्हां चांद

हाथ हिला कर रुख़सत होगा 
उसकी सूरत हिज्र का चांद

सहरा सहरा भटक रहा है
अपने इश्क़ में सच्चा चांद

रात को शायद एक बजे हैं 
सोता होगा मेरा चांद !


शायरा - परवीन शाकिर
संकलन - प्रतिनिधि कविताएँ
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, 1994

शुक्रवार, 4 जुलाई 2014

अंक और अक्षर (Ank aur akshar by Kunwar Narayan)


हवा में उड़ रहे थे अंक ही अंक 
        चिड़ियों की तरह चहचहाते 
        कभी मकानों पर बैठ जाते
        कभी दुकानों पर 
        कभी मोटरों पर
        कभी बिजली के तारों पर 

सब पकड़ रहे थे उन्हें 
        अपनी अपनी तरह 
        अपनी अपनी ज़मीन पर l

किसी के हाथ लगा … 1
किसी के हाथ … 2 
किसी के हाथ … 3 

          जिसके जो हाथ लगा 
          वह उसी से बैठाने लगा 
          अपनी ज़िंदगी का जोड़ तोड़ l 

जिनके हाथ आया … 0 
          उनमें से कुछ 
चले गए अंकों से अक्षरों की दुनिया में l


कवि - कुँवर नारायण
संकलन - इन दिनों
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2002