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मंगलवार, 22 नवंबर 2016

यात्रा (Yatra by Purwa Bharadwaj)

यात्रा के लिए मैं प्रस्तुत रहती हूँ. रेल यात्रा हो या हवाई यात्रा. बस यात्रा नहीं. वह शुरू से मजबूरी का सौदा रही है और स्टीमर या नाव की यात्रा तो भूली बिसरी बात है.

बचपन में पापा के साथ अपने गाँव चाँदपुरा जाने का एकमात्र ज़रिया पानीवाला जहाज़ ही था. पहले स्टीमर लो और उसके बाद गंगा नदी पार करके पहलेजा घाट उतरो. घाट पर उतरकर थोड़ी दूर बालू में चलो. ककड़ी बिकती थी तो हड़बड़ी में उसे खरीदवाओ और फिर रेलगाड़ी पकड़कर चाँदपुरा पहुँचो. मुझे याद है एकबार पापा के साथ अकेले गाँव जाने का कार्यक्रम बना यानी माँ और भैया के बिना. भोर में उठकर माँ ने मुझे मुँह धुलाया था और हिदायतों के साथ यात्रा पर जाने की तैयारी करवाई थी.

चाँदपुरा मेरे गाँव का नाम है, स्टेशन का नाम नहीं है, यह उसी दौरान समझा था. (हालाँकि लंबे समय तक इसकी गुत्थी नहीं सुलझी थी कि गाँव का नाम और स्टेशन का नाम अलग अलग क्यों है या गाँव का नाम स्टेशन पर क्यों नहीं लिखा है.) हमारे स्टेशन का नाम चकमकरंद हॉल्ट है, माँ ने दिमाग में बिठाने का प्रयास किया था. वह नाम मज़ेदार लगा था, लेकिन भारी भी लगा था बोलने में. यह भी हिदायत मिली थी कि हाजीपुर स्टेशन आते ही तैयार हो जाना है क्योंकि हमारे स्टेशन पर गाड़ी बमुश्किल एक या दो मिनट रुकती थी. चकमकरंद हॉल्ट है, जंक्शन नहीं, यह अंतर हमारे लिए परिभाषा का अंतर नहीं था. यह गाड़ी रुकने के समय का अंतर था.

गाँव की यात्रा में पहले जब माँ साथ होती थी और पापा कॉलेज खुला होने के कारण साथ नहीं होते थे तो चकमकरंद हॉल्ट पर चचेरे चाचा लोग तैनात रहते थे. (उस समय चचेरा नहीं जोड़ा जाता था और चाचा का मतलब चाचा था. यह शब्दावली अलगाववाली थी या छोटे परिवार की ज़रूरत से उपजी थी, इस शब्दावली की यात्रा की पड़ताल नहीं की है मैंने. न ही रिश्तों की यात्रा पर गौर किया है मैंने. कभी कभी लगता है कि जैसे जगह की दूरी मील, कोस या किलोमीटर में नापते हैं तो क्या रिश्तों की दूरी मापने के लिए चचेरा, ममेरा, मौसेरा, फुफेरा शब्द हैं ?) हाजीपुर से निकलने के साथ ही माँ हमलोगों का सामान लेकर दरवाज़े के पास आ जाती थी. अपने सर पर आँचल सँभालती हुई (जो हमारे लिए नया होता था क्योंकि वह पालन-पोषण, मन-मिजाज़ पूरी तरह से शहरी थी और पर्दा नहीं करती थी). हमदोनों भाई-बहन को अपनी ओट में रखकर ताकि खुले दरवाज़े का आकर्षण हमें खतरे में न डाल दे. भैया माँ को लोहे का बक्सा घसीटकर लाने में मदद करता था. उस समय कुली का न रहना अखरता नहीं था. चाचा गाड़ी के चकमकरंद हॉल्ट पर आते ही साथ-साथ भागते हुए हर डिब्बे पर निगाह गड़ाए रखते थे. उन दिनों कोच नंबर या आरक्षित सीट के चक्कर से हमसब दूर थे. माँ डिब्बे का डंडा पकड़कर सर निकालकर हाथ से इशारा करती थी और चाचा भौजी-भौजी कहते हुए हमारे डिब्बे के समानांतर दौड़ने लगते थे. गाड़ी की दिशा और गति के मुताबिक़. पहले बक्सा उतारा जाता था और फिर गोद में टंगकर हमदोनों भाई-बहन. अंत में माँ सावधानी से पाँव जमाती हुई उतरती थी क्योंकि नीचे सीमेंट का प्लेटफ़ॉर्म नहीं था, पत्थर के टुकड़े थे.

हाँ, याद आया कि गाँव में घूमते हुए अक्सर हम बच्चे हॉल्ट की तरफ आ निकलते थे. पास में लगा हटिया, रास्ते की लगभग टखने भर धूल, आम की गाछी, बड़हर का पेड़, भुसुल्ला और करीब का स्कूल पार करके हॉल्ट पर आकर रेलगाड़ी की सीटी सुनना मन लगाने का साधन था. गार्ड का झंडी हिलाना, लालटेन जैसी बत्ती को देखना नया अनुभव था. पटरी गंदी नहीं लगती थी. करीने से सजे पत्थरों के टुकड़ों के बीच लोहे की पटरी माँग की तरह लगती थी – सीधी-सख्त और सादी भी. (अब शायद यह बिम्ब न उभरे क्योंकि बिम्बों की गढ़न को समझने लगी हूँ.) उन्हीं पत्थरों में से चिकने-चिकने गोलाई लिए हुए पत्थर गाना-गोटी खेलने के लिए मैं चुन लेती थी. कई बार वह गाना-गोटी मेरे साथ यात्रा करके पटना आया. 

वापसी यात्रा में जल्दबाज़ी रहती थी. मन के अंदर भी और बाहर भी. जब स्टीमर महेन्द्रू घाट पर लगने को होता था तो लंगर डालते ही कुली धड़ाधड़ कूदने लगते थे. घाट से सटने के पहले ही कुली फाँद-फाँद कर स्टीमर पर आ जाते थे. उनको सब्र नहीं था क्योंकि सबको एक अदद असामी चाहिए था. मुझको हमेशा डर लगता था कि कहीं कोई पानी में न गिर जाए. बहुत कुली अधेड़ होते थे और अक्सर धोती-कुर्ता पहनते थे, मगर वज़न उठाने तक में जवान कुलियों को मात देते थे. उस समय उनकी लाल वर्दी जितनी आकर्षक लगती थी, फिर कभी नहीं लगी. अब तो कुली भी कम हो गए हैं और उनकी मौजूदगी पर ध्यान कम जाता है. सूटकेस में लगे चक्के और कम सामान लेकर चलने के सबक ने कुलियों से मेल-जोल भुला दिया है. वरना बहुत बार एक ही कुली मिल जाता था और माँ उसको पहचानकर हालचाल भी पूछ लेती थी. उन यात्राओं के हर चरण पर उत्साह था और आज भी वह उत्साह कमोबेश बरकरार है.

फिर भी बहुत कुछ बदला है. वह क्या है ? यात्रा संबंधी अनुभवों को पलटकर देख रही हूँ तो लगता है कि अव्वल तो सुविधाएँ बदली हैं. आय के अनुपात में, उम्र के मुताबिक, काम के हिसाब से, व्यस्तता को देखते हुए. यातायात के साधनों में तकनीकी तरक्की ने भी असर डाला है.
हमारे जैसे मध्यवर्गीय लोगों के लिए पहले हवाई यात्रा विकल्प नहीं थी. अब वह पहला विकल्प बनती जा रही है. यदि निजी काम से जाना हो तब भी एक बार हवाई जहाज़ के टिकट का दाम ज़रूर देख लेते हैं. बहुत ज़्यादा महँगा हुआ तो रेल यात्रा की तरफ आते हैं. हाँ, रात में सोकर जानेवाली यात्रा है तो हवाई यात्रा से बेहतर है रेल यात्रा. मुँह अँधेरे उठकर या देर शाम के घंटे-डेढ़ घंटे के हवाई सफर से अच्छा लगता है कि जाओ ट्रेन में बिस्तर बिछाओ और सो जाओ. अगली सुबह एक नए शहर में हो तो बहुत सुकून मिलता है. जब गाड़ी गंतव्य पर अलस्सुबह न पहुँचे तो हमलोग बड़े स्टेशन का इंतज़ार करते थे जहाँ 10 मिनट गाड़ी रुके और पानी की व्यवस्था हो. ताकि स्टेशन के नल पर जल्दी-जल्दी ब्रश किया जा सके, जिभ्भी की जा सके. जब सूखा नल, गंदा पानी, थूक-खखार दिखता था तो चिढ़ होती थी, मगर शायद आज की तरह उतनी घिन नहीं आती थी. आगे चलकर नागार्जुन की कविता जब पढ़ी तो घिन का समाजशास्त्र अधिक समझ में आया. खैर, स्टेशन पर मुँह धोकर साथ लाए गए खजूर-निमकी खाकर देर सुबह भी कहीं पहुँचना यात्रा को सार्थक कर देता था. दोपहर या शाम को यात्रा करके कहीं पहुँचो तो बासी-बासी लगता है. इसीलिए हवाई यात्रा में भले आराम ज़्यादा हो, मगर ताज़गी कम लगती है.

मुझे बार-बार रामगढ़ या नैनीताल जाते समय काठगोदाम स्टेशन पर उतरना याद आता है. वह भी बाघ एक्सप्रेस से J इतनी ताज़गी रहती है हवा में कि मन खुश हो जाता है. खासकर तब जब आप गर्मीवाली जगह से आए हों और यात्रा का अंतिम पड़ाव आपको उससे निज़ात दिलानेवाला हो तो पूरी यात्रा मुक्तिदायक लगने लगती है. वैसे ही कड़कड़ाती ठंड से गरम बयार की यात्रा तन-मन को उष्णता प्रदान करती है. वाकई यात्रा के दो छोर यदि विपरीत प्रकृति के हों तो भावों का उद्रेक तीव्र होता है.

मौसम ही नहीं, जगह किससे जुड़ी है, यह भी यात्रा को अलग अलग मायने देता है. आप कहीं नौकरी करते हों और वहाँ से घर लौट रहे हों तो यात्रा जितना सुकूनदेह कुछ नहीं. आजीविका कमाने की आपाधापी में यदि आपके कंधे छिल गए हों, देह और दिल पर जख्म हों तो उससे दूर ले जानेवाली किसी भी तरह की यात्रा का आप दिल खोलकर स्वागत करते हैं. मायके से ससुराल और ससुराल से मायके जानेवाली यात्राओं के मूड में तो साफ़ फर्क होता है. लड़की की ससुराल यात्रा है या लड़के की, यह आपको भावमुद्रा, शरीर की मुद्रा से लेकर अर्थमुद्रा खर्च करने के तरीके सबसे झलक जाएगा J दूसरी तरफ अपनी जगह से बाहर निकलनेवाली यात्रा रोमांच, उत्साह, नयापन, चुनौती, उदासी, अकेलापन, मजबूरी हर तरह का भाव लाती है. दरअसल किसी भी तरह की यात्रा के मूल में यात्री का संदर्भ और स्थान से उसका रिश्ता ही यात्री के अनुभवों को गढ़ता है. यात्रा का केंद्र क्या है और केंद्र की ओर या केंद्र से दूर यात्रा हो रही है या आप परिधि में ही चक्कर काट रहे हैं, यह महत्त्वपूर्ण है.

यात्रा को समझना हो तो कौन कहाँ कैसे कब और क्यों का प्रश्न समझना होगा. ऐसा नहीं होता तो मेरे बाबा की हाजीपुर से पटना तक की पैदल यात्रा या नानाजी की शहर के भीतर की साइकिल यात्रा, मेरी बेटी की जर्मनी यात्रा, मेरी मदद करनेवाली जेवंती की सालाना पहाड़ यात्रा या बनारसी की सीतामढ़ी यात्रा, ननदोई की मणिपुर की बस यात्रा और अपने आसपास के लोगों की असंख्य यात्राओं को मैं एक ही तरीके से समझ पाती. जितने अनुभव उतने समझने के औजार होने चाहिए. पंडिता रमाबाई की समुद्री यात्रा पर हुए बवाल को समझने के लिए मुझे 19वीं सदी के महाराष्ट्र के समाज के गठन, उसकी राजनीति से लेकर सुधारकों के व्यक्तित्व और धर्मशास्त्र तक को समझना पड़ा था. इसी तरह अभी रुकैया सखावत हुसैन की कल्पना यात्रा ‘सुल्ताना का सपना’ समझने के लिए तत्कालीन बंगाल, मुसलमान और औरत की दुनिया को जानने के अलावा मैं फैंटेसी के आधार को पकड़ने की जद्दोजहद कर रही हूँ.

समय का सवाल बहुत मायने रखता है यात्रा में - यात्रा कब शुरू हो रही है, उसका मुहूर्त ठीक है या नहीं, उसकी अवधि क्या है, उसकी तैयारी में कितना समय लग रहा है, टुकड़ों में बँट हुई है यात्रा या एक साँस में लगातार चल रही है. घड़ी की सुई पर टकटकी लगी रहती है. समय से गुत्थमगुत्था रहने के कारण ही शायद तनाव पैदा होता है. हर यात्री के चेहरे पर हमें तनाव दिखता है. मेरे जानते असल में समस्या संक्रमण की प्रक्रिया से है. हमें कहीं से कहीं जाने के बीच की प्रक्रिया तनाव देती है. 

यात्रा अपने आप में घटना है और वह घटनापूर्ण हो जाए तब तो क्या बात है ! सहयात्रियों का उसमें बड़ा योगदान होता है. उनकी गप्पें, उनके खर्राटे, उनके कहकहे, उनके अचार का डिब्बा, उनकी रिश्तेदारों से होनेवाली अनबन के किस्से, उनकी राजनीति की दलीलें, सब मिल-मिलाकर यात्रा को या तो रोचक बना देते हैं या झेलाऊ. यों आजकल सहयात्रियों की उदासीनता यात्रा को सुखद बनानेवाली बात मानी जाती है. मुझे तो चुप्पा सहयात्री खलता है. रेल के ए.सी. डिब्बों में, मेट्रो में, हवाई जहाज़ में अधिकतर लोग फोन और लैपटॉप में लगे होते हैं. या अपनी नींद पूरी कर रहे होते हैं. (साधारण डिब्बों में हलचल बची हुई है, यह गनीमत है.) आज मेरे साथ भी ऐसा हुआ. बड़े दिनों बाद दिन भर की रेलयात्रा थी और मैं अपनी थकान मिटा रही थी. लगभग ढाई घंटे सोई मैं. सहयात्रियों का बीच में टोकना-टपकना नहीं हुआ और मुझे वह राहत देनेवाला लगा. लेकिन अब अधूरा अधूरा लग रहा है. चलते समय सामनेवाली सीट की लड़की अपनी माँ को फोन पर झिड़क रही थी कि सारी बात रोमिंग पर ही करोगी क्या, यह मैंने सुना और मुस्कुराई. हल्के से. उस मुस्कुराहट में छटाँक भर विदा लेनेवाला भाव भी छिपा था. बिना किसी से विदा लिए यात्रा ख़त्म कैसे होगी भला !  

रह गई बात दुर्घटना की जो यात्राओं में होती ही रहती है. हाल की रेल दुर्घटना के घाव ताज़ा हैं. जीवन को आगे ले जानेवाली यात्राएँ जीवन लीला की समाप्ति की ओर भी ले जाती हैं. तब भी यात्रा तो रुकती नहीं...


रविवार, 18 सितंबर 2016

घरवाली (Gharwali in Sanskrit)

पोतानेतानपि गृहवति ग्रीष्ममासावसानं
यावन्निर्वाहयतु भवती येन वा केनचिद् वा l 
पश्चादम्भोधरजलपरीपातमासाद्य तुम्बी 
कूष्माण्डी छ प्रभवति तदा भूभुजः के वयं के ? ll


गर्मी के ये दिन बीत जायें बस
बच्चों को सँभाले रहो
ओ घरवाली,
जैसे भी बन पाये, वैसे
फिर आयेगी बरसात गिरेगा पानी
जिसको पाकर फल जायेगी कुम्हड़े और लौकी की बेलें
तब हम क्या
और राजा महाराजा क्या ?


क्षुत्क्षामाः शिशवः शवा इव तनुर्मन्दादरो बान्धवो 
लिप्ता जर्जरकर्करी जतुलवैर्नो मां तथा बाधते l 
गेहिन्या स्फुटितांशुकं घटयितुं कृत्वा सकाकुस्मितं 
कुप्यन्ती प्रतिवेशिनी प्रतिदिनं सूची यथा याचिता ll  


भूख से दुबलाये बच्चे मुर्दों की तरह हो गये हैं
कुछ ही बचे हैं रिश्तेदार
वे भी करते हैं तिरस्कार
जर्जर गगरी लाख से जिसे साधा गया है कितनी ही बार
ये सब नहीं सालते मन को उतना, जितना
घरवाली का फटा वस्त्र सीने को
सूई-धागा लेने पड़ोस में जाना
पड़ोसिन का मुँह बिचकाना, कुढ़ना, मुस्काना


कवि - अज्ञात 
मूलतः विद्याकर के सुभाषितरत्नकोश से संकलित (संपादन दामोदर धर्मानंद कौसांबी) 
पुस्तक - संस्कृत कविता में लोकजीवन 
चयन और अनुवाद - डॉ. राधावल्लभ त्रिपाठी 
प्रकाशन - यश पब्लिकेशन्स, दिल्ली, 2010

रविवार, 14 अगस्त 2016

घर जाना है (Ghar jana hai by Purwa Bharadwaj)

मुझे घर जाना है। यह कहते ही सवाल कौंधता है कि मैं किसे घर कह रही हूँ। क्या मायके की बात कर रही हूँ ? या ससुराल की ? या अपने घर यानी शादी के बाद बने अपने नीड़ की ? दोनों-तीनों घरों को अलग करनेवाला कारक क्या है ? क्या 'अपना' शब्द ?

मुझे नहीं पता। पता करना भी नहीं चाहती हूँ। मेरे लिए घर घर है। उसमें कोई विशेषण या qualifier लगाने की ज़रूरत मुझे नहीं है। दुनिया को होगी क्योंकि दुनिया को बहू-बेटी और पत्नी की भूमिका को अलग अलग करना है। जेंडर आदि के मुद्दे पर काम करते हुए मैंने अपने मन को टटोलने की कोशिश की है कि मैं खुद कितना ढाँचे में फँसी हुई हूँ। ढाँचे से पूरी तरह मुक्त होना तो बहुत मुश्किल है, लेकिन ढाँचे में पैवस्त भाषा को लेकर थोड़ी सावधानी बढ़ी है मेरी।

जब माँ और मोहल्ले की कई चाचियाँ गोधन के समय सामा-चकवा के गीत पर रोने लगती थीं तब मुझे ठीक-ठीक समझ में नहीं आता था कि क्या हो रहा है। ब्याहता औरतों से सुनती थी कि घर छूटने यानी मायका छूटने की तकलीफ फूटती है। असल रहता था कि मायके को फिर से घर न कह पाना। अब भले उस तकलीफ को बेहतर समझने लगी हूँ, लेकिन मायका घर का पर्याय क्यों नहीं रह जाता है ? वह तकलीफ उनके लिए और बढ़ जाती है जब शादी के बाद का घर भी आजीवन घर नहीं हो पाता है।

जहाँ तक घर को परिभाषित करनेवाले सुकून का सवाल है वह मुझे बहुत जगह मिलता है। जब सास-ससुर के पास सीवान जाती थी तो भी और जब जेठ-जेठानी के पास चंडीगढ़ जाती थी तो भी इत्मीनान से रम जाती थी। कभी-कभी दोस्तों के घर भी और पास-पड़ोस में भी मैं ज़्यादा 'at home' महसूस करती हूँ। होटल या सफर ने कभी मेरी नींद नहीं चुराई। जब लोग कहा करते हैं कि नई जगह उन्हें नींद नहीं आती तो मुझे हैरानी होती है। मैं बहुत जगह घरवाला अहसास रखती हूँ, फिर भी घर याद आता है।

हमारी तरफ एक और शब्द है डेरा। उसमें एक अस्थायीपन की बू है। मानो तंबू फिलहाल गड़ा हो और कभी भी उखड़ जा सकता है। माँ अक्सर हमारे पुराने घर को रानीघाट वाला डेरा कहकर याद करती है। वह उसके लिए बिलखती है और मैं उस डेरा शब्द में छुपे हुए अर्थ को समझने की कोशिश करती हूँ। यह डेरा कोई विद्यार्थियों के लिए किराये पर लिए गए मकान के लिए नहीं प्रयुक्त है और न ही डेरा सच्चा सौदा जैसे पंथ के लिए है, बल्कि घर के लिए है। ईंट-गारे से बने घर के लिए नहीं, अनुभवों से बने घर के लिए। इसीलिए जब माँ बोलती है तो मुझे घर करीब सुनाई पड़ता है और जब पापा बोलते हैं तो मुझे थोड़ी दूरी सुनाई पड़ती है।

घर के लिए स्थायी या अस्थायी होना बड़ा सवाल है। अमीर-गरीब, सवर्ण-अवर्ण, प्रवासी-आप्रवासी आदि कोटियों की पहचान में भी शायद घर के इस गुण की भूमिका रहती है।अस्थायी घर इंसान को और अधिक vulnerable बना देता है। जीवन में स्थायित्व की तलाश स्थायी घर की तलाश से शुरू होती है। घर मिल जाए तो लगता है कि सबसे बड़ा मसला हल हो गया। उस समय घर का ढाँचा असल मायने रखता है, घर के भीतर क्या होता है वह गौण हो जाता है। आश्रय देनेवाले के रूप में घर की परिभाषा सबसे ऊपर रहती है।

घर का गुण घर में रहनेवालों को परिभाषित करता है। कितना अजीब है न ? छोटा घर-बड़ा घर, खुला घर-दमघोंटू घर, लोगों से भरा घर-लोग विहीन घर, दोमंजिला-चरमंजिला घर - सब हाड़-मांस के इंसान के रिश्तों, उसकी आदतों, उसकी सोच, उसके स्वभाव और यहाँ तक कि उसकी आवाज़ तक को गढ़ता है। मैं अभी तक जितने तरह के घरों में रही हूँ उन सबने मुझको इस हद तक प्रभावित किया है कि मुझे कभी-कभी आर्किटेक्चर पढ़ने की ज़बरदस्त इच्छा होती है। वास्तु को जानने के लिए नहीं, बल्कि घर की बनावट से टकराते मानवीय गढ़न को समझने के लिए।

मुझे घर से जुड़े मुहावरों में दिलचस्पी है। घर बनाना, घर जमाना, घर टूटना, घर तोड़ना, घर लौटना या और भी। सबके केंद्र में औरत को रखा जाता है। घर को घर बनानेवाली भी औरत को कहा जाता है क्योंकि उसी की मांस-मज्जा पर वह टिका होता है। ऐसा नहीं है कि पुरुषों का खून-पसीना घर की नींव में नहीं जाता है। जाता है, भरपूर जाता है, लेकिन उसकी प्रकृति भिन्न होती है। मैंने अपने कई पुरुष मित्रों को घर के लिए तड़पते देखा है, फिर भी तड़प तड़प में भिन्नता होती है।

भैया जब भभुआ या सीवान या गैंगटॉक या हैदराबाद से भागा-भागा पटना आता है तो उसका घर आना सनी टावर्स या राजप्रिया अपार्टमेंट या मीठापुर में बँटा नहीं होता है। उसका अखंडित घर है उसका शहर, अपना शहर। मतलब दूरी घर के अर्थ का विस्तार कर देती है। तभी शायद लंदन और यॉर्क की यात्रा के बाद दिल्ली एयरपोर्ट पर ही हमें घर का अहसास होने लगा था।

हमारा घर आना कितना अलग है ! 'घरवापसी' शब्द का हश्र देखिए। हिंदूवादी लोगों ने उस घर को कितना हिंसक बना दिया है ! वैसे घर हिंसामुक्त होता नहीं है। घर को केवल रूमानियत से नहीं देखा जा सकता है। घर के भीतर साल दर साल हिंसा होती रहती है और किसी को भनक तक नहीं लगती। यदि घर का झगड़ा जगजाहिर हो जाए तो बुरा माना जाता है कि घर का मामला बाहर क्यों आ गया।

यह जो सीमा रेखा है घर के अंदर और बाहर की, वह बड़ी अनुल्लंघनीय है। लक्ष्मण रेखा का महत्त्व हमें पता ही है। यह घर जैसी संस्थाओं पर भी लागू होता है। हाल में जगमती सांगवान प्रसंग में बहस इसी को लेकर थी। घर का मामला सलटाने के लिए साम दाम दंड भेद - कुछ भी अपना लो चलेगा, बस सार्वजनिक होने से रोक लो। आज से तकरीबन 14 साल पहले एक नामी गिरामी प्रगतिशील स्कूल में जब बाल यौन शोषण की घटना हुई थी तो तब प्रबुद्धअभिभावकों ने यही कहा था कि घर (मतलब स्कूल) के अंदर ही बात रहनी चाहिए और पुलिस में जाने की ज़रूरत क्या है। मैं हैरान हुई थी कि जिस अधिकार को लड़कर हासिल किया है, उसे केवल घर की झूठी प्रतिष्ठा बचाने के नाम पर क्यों जाने दें !

बाद में घर की इज़्ज़त के बहुआयामी अर्थ स्पष्ट हुए। चारों तरफ हो रही 'ऑनर किलिंग' से लेकर मुख्तार माई का मामला और सैंकड़ों आत्महत्याओं का कारण समझ में आया। यह महज़ निजी और सार्वजनिक का झगड़ा नहीं है, बल्कि नियंत्रण और ताकत का झगड़ा है। किसका कायदा, किसका फैसला घर में चलेगा, किसको चुनने की आज़ादी है और किसको नहीं - इन सब से घर की नियति तय होती है।

किसी को घर मुहैया कराना कितना बड़ा दायित्व है, यह यदि देखना हो तो मुज़फ्फरनगर जाइए। अभी वहाँ एक कोशिश चल रही है पुनर्वास की। घर से बेदखल कर दिए गए लोगों को नए सिरे से जमाने की। इस उम्मीद में कि नया घर न केवल सर पर छत दे, बल्कि अपने बृहत्तर रिश्तों पर यकीन वापस आए। आस-पड़ोस आबाद हो, ज़िंदगी पटरी पर लौटे।

घर की चौहद्दी  तय करना और दूसरी चीज़ों से उसे विशिष्ट बताना हम सबकी आदत में शुमार है। मैं कभी-कभी बेटी पर गुस्सा होती हूँ तो कहती हूँ कि घर को होटल न समझो कि केवल खाना-पीना और सोने से मतलब हो। उस क्षण मैं उसकी गर्माहट की आकांक्षी होती हूँ। चाहती हूँ कि घर में वह उसी तरह चहके, गपशप करे या झगड़ा ही करे जैसे पहले करती थी। निर्लिप्त न रहे। घर के लोग ही क्यों, मेहमान भी हो तो खुलकर रहे।  बार-बार दुहराते रहते हैं हम कि 'घर समझिए इसको' जहाँ कष्ट है, फिर भी मिठास है।

क्या कहने भर से घर घर हो जाता है ! नहीं, उसके लिए अनवरत लगे रहना पड़ता है। घरवालों का मूड सँभालो, उनकी सुविधा का ख़याल करो। घर में जिसकी भी आमद-रफ़्त हो उसे देखो। काम में मदद करनेवाली का सूजा हुआ मुँह भी घर को बोझिल बना देता है तो माली की बेरुखी आपको खिन्न कर देती है। चंद घंटों के लिए आनेवाला इलेक्ट्रिशियन भी खुशमिजाज़ हो तो घर का माहौल हल्का हो जाता है। मतलब घर को हरचंद खुशगवार बनाने की कोशिश में लगे रहना पड़ता है। इसमें कभी-कभी इतनी थकान होती है कि मुझे घर काटने लगता है।

कुछ-कुछ सालों के अंतराल पर मन करता है घर से भाग जाऊँ। एकाध बार भागी भी, मगर रिठाला (मेट्रो से पहुँचनेवाला एक छोर) से लौट आई या मूलचंद के इलाके से लौटा ली गई। लौटते समय अपने पर हँसी आई और घर से भागना मुहावरेदार बन कर रह गया। याद आया कि माँ एक बार गुस्सा होकर घर से निकली और नानी के घर चली गई। शाम ढलते ही मामू ने कहा कि चलिए बड़की दीदी, आपको मोटरसाइकिल से घर छोड़ दूँ। माँ ने घर लौटकर कोफ़्त के साथ कहा कि अजीब हालत है, घर से भागना चाहो तो भी घूम-फिरकर वहीं पहुँचा दिया जाता है। खुशकिस्मती कहूँ या जो भी नाम दूँ, हमदोनों घर से उतने बेज़ार नहीं हुए थे कि घर लौटना बुरा लगा हो।

मगर उनकी सोचिए जिनकी साँस घर में दम तोड़ती हो ! उनके लिए घर से भागना जीने का एकमात्र उपाय रह जाता है। लट्ठ लेकर दुनिया पीछे पड़ जाती है कि बच्चू घर से निजात नहीं है और बहुतों को पकड़-धकड़ कर घर वापस ले आया जाता है। घर से भागी हुई लड़कियाँ कवि की कविता का विषय भर नहीं बनती हैं, आम चर्चा का विषय बन जाती हैं और वह उनके लिए मारक होता है। लड़के भी भागते हैं और सब मायानगरी का रुख नहीं करते हैं। कोई फुटपाथ पर रात बिताता है तो कोई रेलगाड़ी में।

खतरे के बावजूद घर छोड़ा जा सकता है। नया घर ढूँढा या बसाया जा सकता है। बेघर होना बेचारगी ही नहीं है, वह आपकी राजनीति भी हो सकती है।  इरोम शर्मिला का घर अभी कहाँ है ? आप अपने को निष्कवच बना दीजिए और तब परवाज़ भरिए।

लेकिन मैं कहाँ से कहाँ चली गई ? फिलहाल मुझे तो घर जाना था, लेकिन एक घर से दूसरे घर जाना कितना मुश्किल हो जाता है ! कौन पहला है, कौन प्राथमिक है, कौन तय करेगा यह - इसी सब में समय निकलता जाता है।


बुधवार, 6 जुलाई 2016

अंदाजी टक्कर (Andaji takkar by Purwa Bharadwaj)

अंदाजी टक्कर। दुरुस्त करके कहूँ  तो अंदाज़ी टक्कर। वैसे अपनी बोली में अंदाजी टक्कर ही जमता है। यह शब्द बड़े दिनों बाद मेरे सामने आया और एक बार नहीं, बार-बार आया। संदर्भ क्या था, पता है ? संदर्भ था फोटो खींचने का। जी हाँ, मैं अपने फोन से तस्वीर ले रही थी। एकदम अंदाजी टक्कर !

एक तो मुझे साफ़ दिखता नहीं है और ऊपर से बाईफोकल चश्मा ! फोन भी रामजी का सँवारा हुआ। उसकी स्क्रीन गिर जाने के कारण कहीं कहीं से चूर हो गई थी। (चकनाचूर नहीं हुई थी। स्क्रीन कामचलाऊ हालत में थी।स्क्रीन गार्ड के कवच में मैं उसी से काम चला रही हूँ।) सोने पर सुहागा यह कि न मुझे फोटोग्राफी के गुर आते हैं, न उनका अभ्यास रहा है। फिर भी मैं तस्वीर खींचने की कोशिश कर रही थी। सौ फीसदी अंदाजी टक्कर !

खींच लेने के बाद जब पहली तस्वीर मैंने देखी तो लगा कि लोगों के सर-पैर अपनी जगह पर हैं, इमारतें सीधी खड़ी नज़र आ रही हैं, पत्तों का रंग भी कैमरे की पकड़ में आ रहा है। इसका मतलब अंदाजी टक्कर कुछ काम किया जा सकता है। अधिक निराश होने की ज़रूरत नहीं है। लिहाज़ा हिम्मत बढ़ गई। यॉर्क शहर का आसमान इतना खूबसूरत था कि आड़े-तिरछे कहीं से भी तस्वीर लो, उसकी अदा का अंदाज़ा हो जाता था। ताबड़तोड़ मैं आसमान को अपने लिए सहेजने में जुट गई। अंदाजी टक्कर ही सही, कोई न कोई कोना तो पकड़ में आ ही जाता था।

वैसे अंदाजी टक्कर कुछ करने में हर्ज़ क्या है ? उसमें देखते तो नतीजा ही हैं। नतीजा ठीक-ठाक रहा, मेल में रहा तो वाह वाह। चुनाव के समय खासकर यह देखने को मिलता है। अंदाज़ी घोड़े दौड़ाए जाते हैं। जिसका अंदाज़ा सही निकला वह अच्छा भविष्यवक्ता निकल गया, वरना आप घर बैठे अंदाज़े लगाते रहिए आपकी बात का कुछ मोल नहीं। है तो यह तुक्केबाज़ी ही। लह गया तो लह गया, नहीं तो गया पानी में।

इसमें संयोग का तत्त्व अनिवार्यतः रहता है। वह सकारात्मक और सुखद शब्द है। उसमें आशा का पुट है, जबकि आम तौर पर अंदाजी टक्कर नकारात्मक और कमतर माना जाता है, जो मेरे हिसाब से ठीक नहीं। इसमें गलती होना और कोशिश करना दोनों शामिल हैं। कल्पना करना, अनुमान लगाना, कल्पना की उड़ान भरना सब इसी के रंग हैं। और ये सब सीखने और आगे बढ़ने की प्रक्रिया के लिए ज़रूरी हैं। हम पढ़ना भी ऐसे ही सीखते हैं। चलना भी। जब पहला कदम बढ़ता है तो हमें पता नहीं होता कि वह कहाँ जा रहा है। चाहे वह बच्चे का पहला कदम हो या आज़ादी की चाह में निकला किशोरी का कदम हो या ऊबी हुई ज़िंदगी से भाग निकलने की छटपटाहट में उठाया कदम हो।

टटोलना है यह। पूरी ज़िंदगी हम यही तो करते रहते हैं। रिश्ते टटोलते रहते हैं, सच टटोलते रहते हैं। अंदाजी टक्कर सब चलता रहता है। इधर एक लड़की अपने आगे आनेवाले दिनों की बात कर रही थी तो मुझे लगा कि वह गारंटी किस चीज़ की चाहती है। नौकरी कैसी मिलेगी और साथी कैसा मिलेगा या कैसा निकलेगा, इसे कैसे तय किया जा सकता है। [अथवा कैसी भी साथी लिखना चाहिए, अनिवार्य विषमलैंगिकता का चश्मा उतार दूँ तो :)]

अनिश्चय से भरी राह है यह, ऐसा नहीं मानना चाहती हूँ। अभी कुछ नई कविताएँ पढ़ रही थी तो लगा कि शायद रचनात्मक प्रयास भी यही कहता है। चलते-चलते कहाँ कविता बन जाएगी, कहाँ कविता ठहर जाएगी, यह कवि को भी नहीं पता होता है। यह रचना प्रक्रिया की सुंदरता है। इसलिए मुझे लगता है किअंदाजी टक्कर में निरंतरता का भाव उसे सार्थकता प्रदान करता है। निर्रथक भी हो तो क्या ? चलायमान है न ? गति में है न ?

तलाश असल चीज़ है। मुझमें जान भरती है यह। अब मुझे लगता है कि मूलतः मैं शोधार्थी हूँ। मेरा सबसे अधिक मन उसी में लगता है। दिशा और विषय तय हों, यह ज़रूरी नहीं। शोध का विषय अनंत है और मैं कुछ चुनने के लिए हाथ-पैर मारती हूँ। पुरानेपन से वितृष्णा नहीं है, लेकिन नई राह की तलाश है। चलती रहती हूँ। पुरसुकून न सही, पर पुरउम्मीद।

एक किस्म की बेचैनी है इस अंदाजी टक्कर चलते रहने में। जैसे साइकिल चलाना सीखते समय हैंडल पर काबू पाने की बेचैनी होती है या तनी हुई रस्सी पर चलते हुए नट-नटनी को देखते समय संतुलन बनाए रखने की। लेकिन जिसने यंत्र-तंत्र के कल-बल को समझ लिया हो, जो अभ्यासी हो, जिसने देह और मन को साध लिया हो, उसके लिए यह सब सामान्य हो जाता है। यह करतब नहीं रह जाता है। हमारे जैसों के लिए भले हो ! मतलब अंदाजी टक्कर चलना अनाड़ियों का मामला है क्या ?

एक वरिष्ठ साथी ने याद दिलाया कि उनके ज़माने में किस तरह मेडिकल निकलने का 'क्रेज़' था और उसके इम्तहान में multiple choice वाले सवाल आते थे तो कैसे किसी चॉइस पर बाज़ तालिबे इल्म (जिन्होंने पढ़ाई नहीं की, मगर परीक्षा कक्ष में हाज़िर हो गए) अंदाजी टक्कर लगाते थे। आज भी सूरत बदली नहीं है, बल्कि यही है। मुमकिन है कि अंदाजी टक्कर मारकर परीक्षा पास करनेवालों की तादाद बढ़ी ही हो। मेरी नज़र में यह चिंता का कारण नहीं है।

मुझे चिंता है कि इस MCQ को कितने हल्के ढंग से लिया जाता है। लोग आरोप लगाते हैं कि इस MCQ ने एक तरह से परीक्षा प्रणाली को ही उलट-पुलट कर रख दिया है। ज्ञान की जगह सूचना ने ली है और अंदाजी टक्कर मार-मारकर नाकाबिल बच्चे भी पास हो जाते हैं। गंभीर शिक्षाविदों को महसूस होता है कि अंदाजी टक्कर मारना खेल की तरह हो गया है और इस आदत ने ज्ञान के वज़न को घटाया है। परीक्षा व्यवस्था को कसते हुए इन दिनों वस्तुनिष्ठ सवालों में सूचना आधारित सवाल के साथ अवबोध के सवाल भी रखे जा रहे हैं ताकि परीक्षार्थी अंदाजी टक्कर न मारें। सूचना का अंदाज़ा लगाया जा सकता है, इसलिए सूचनापरक सवाल अंदाजी टक्कर हल कर लिए जाएँगे, मगर अवबोध (समझ) के सवाल में अंदाजी टक्कर की गुंजाइश नहीं है। इस घेरेबंदी पर मुझे हँसी आती है। अवबोध ज़रूरी है और सही मायने में शिक्षा उसी पर टिकी है, मगर उसका अंदाजी टक्करवाले रास्ते से कोई सीधा विरोध नहीं है। उसे हम सीढ़ी की तरह भी तो मान सकते हैं।

निष्काम कर्म की तरह क्यों न मानें इसे ? फल की चिंता किए बगैर चलना श्रेयस्कर है तो यह क्यों नहीं ? मान लीजिए अर्जुन का निशाना मछली की आँख पर नहीं लगता तो ? क्या होता यदि अंदाजी टक्कर तीर चलता तो ? बल्लेबाज़ी और गेंदबाज़ी का उसूल है क्या कोई ? छक्का-चौका न लगे तो असफलता  का ठप्पा तुरत लग जाता है। क्या यह न्याय है ? हमारी दार्शनिकता यहाँ काम नहीं करती क्या ? संस्कृत के सुभाषितों और सूक्तियों से भरे हमारे महान सांस्कृतिक जीवन में अंदाजी टक्कर की क्या जगह है ?
  

शुक्रवार, 1 जुलाई 2016

नग्नता (Nagnata - Nudity by Purwa Bharadwaj)

वीनस की मूर्ति ने मेरा ध्यान खींचा। सिर्फ वही नहीं, लिनेन की पट्टियों में लिपटी अनजान औरत की ममी ने भी जल्दी आगे बढ़ने नहीं दिया था। लंदन स्थित ब्रिटिश म्यूज़ियम की सैंकड़ों कलाकृतियों के बीच खासकर दो जगह मैं देर तक रुकी रही - एक तो वीनस की मूर्ति के सामने जो नग्न थी और नहाते समय किसी के द्वारा देख लिए जाने की प्रतिक्रियास्वरूप अपने को छुपाने की कोशिश कर रही थी और दूसरे ममी ही ममी जहाँ थी। एक पत्थर में बसी होने के बावजूद मांसल व जीवंत और दूसरी काष्ठवत् व निश्चल। एक कला की पराकाष्ठा और दूसरी विज्ञान का चमत्कार।

सोच रही थी कि नग्नता किसी अबूझ पहेली की तरह है। मानव शरीर की नग्नता, उसमें भी खासकर स्त्री शरीर की नग्नता मानो चुनौती देती है - सबको। सभ्यता को, संस्कृति को, विचार को, कला को, कलाकार को, विज्ञान को चुनौती देती है। तभी तो सब उससे जूझने और निबटने में लगे रहते हैं। जैसे उस किले को फतह करने के बाद ही बात आगे बढ़ सकती है।

पोट्रेट गैलरी में जब मैं नग्न शरीर को दिखलाते हुए चित्रों को देख रही थी तो यही लगा कि नग्नता की अपनी भाषा है। उससे लोग डरते हैं। उस भाषा को सब समझते हैं, लेकिन उस भाषा का इस्तेमाल करने में हिचकिचाते हैं। उस भाषा की ताकत जानते-बूझते हुए भी लोग उस पर पर्दा डालते हैं। याद कीजिए जब सरे राह कोई हिंजड़ा अपने कपड़े उठाने का इशारा भर कर देता है तो उसके आसपास के अपने को सभ्य माननेवाले लोग किस तरह अपनी नज़रें चुराने लगते हैं।

नग्नता की सत्ता होती है। लगभग 60 साल की उम्र में नारीवादी विचारक जर्मन ग्रियर की नग्न तस्वीर साफ़ और सीधी निगाह से यही तो कह रही थी। सवाल उठता है कि नग्नता की सत्ता का कौन कब और कैसे इस्तेमाल करता है। या किसे इसकी इजाज़त है। सही मायने में सत्ता का इस्तेमाल करने की इजाज़त मिलने से रही, उसे अपने हाथ में लेना पड़ता है। यह हम पर निर्भर करता है कि नग्नता को हम कमज़ोरी में बदल जाने देते हैं या ताकत में।

                                                                                                                        चित्र : सुतनु पाणिग्रही

यह साफ़ दिखता है कि नग्नता पर कब्ज़ा करने की होड़ लगी रहती है। कारण, उसकी खरीद-बिक्री का व्यापार मुनाफ़े का है। इसका मतलब है कि उसका मोल है। जिसने अपनी मर्ज़ी से बेचा और यदि उसने वाजिब दाम लिया तो वह ताकतवर है। यदि दूसरों का दबाव है और वाजिब दाम न पाया तो शोषण-उत्पीड़न और ठगी का शिकार। यौनकर्मियों को लेकर होनेवाली बहसों के केंद्र में यही मुद्दा रहता है।

अक्सर सस्तापन और फूहड़पन से नग्नता को जोड़ दिया जाता है। आम राय बना दी जाती है कि जो नग्न है वह गंदा, अश्लील है। कम से कम वह फूहड़ ज़रूर कहलाता है। यह किसकी नज़र में है, इसे समझना पड़ेगा। उन्हीं की नज़र में, जो चाहते हैं कि नग्नता की उनकी परिभाषा ही मान्य हो और जिनको उससे डर लगता है। हर चीज़ की तरह नग्नता की भी परिभाषा अलग अलग हो सकती है, लेकिन दिक्कत है केवल एक तरह की परिभाषा को थोपने से। नग्नता की परिभाषा और उसका पैमाना तय करने का एकाधिकार हासिल करने की होड़ भी पुरानी है।

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                                                             चित्र : इंटरनेट

बीसवीं सदी के आरंभिक वर्षों में त्रावणकोर में धान के खेतों में काम करती औरतों के खुले हुए वक्ष देखकर शायद किसी को न लाज लगती थी और न दया उपजती थी। ऊपर के चित्र में  ये औरतें भी सिमटी-सकुचाती हुई नहीं दिख रही हैं। इसके उलट केरल में इझावा समुदाय की औरतों ने जब नायर ब्राह्मण औरतों की तरह अपनी नग्नता छुपाने का प्रयास शुरू किया तो वे दंडित हुईं। कमर के ऊपरी हिस्से को ढँकने और ब्लाउज़ पहनने की सज़ा किसी औरत को मिली हो, अपने आप में यह तथ्य चौंका देनेवाला लगता है। जाति, जेंडर और यौनिकता के इस 'मिक्सचर' ने वाकई नग्नता को सरल नहीं रहने दिया है। पूर्ण नग्नता और आंशिक नग्नता की दर्जाबंदी को समझने में भी इससे मदद मिलती है।

आंशिक नग्नता के कई पक्ष हैं। शरीर का कौन सा हिस्सा ढँकना है और क्या अनावृत्त रहेगा, यह सोच समझ कर चुना जाता है। इसने फैशन से लेकर तरह तरह की कलाकारी को जन्म दिया है। जब मैंने नाभि में लटके हुए घुँघरू का चित्र देखा, पीठ, वक्ष, नितंब और एड़ी के पास के गोदने (Tattoo) को देखा तो उनका बेबाकपन आकर्षक लगा। वे प्रदर्शनीय हैं और प्रदर्शनीय होने में नग्नता का समावेश है।

पार्श्व नग्नता अधिक मान्य है और आकर्षक भी लगती है। वह जिज्ञासा और उत्सुकता जगाती है। यह आमंत्रण भी है। शरीर को ख़ास कोण से दिखाकर कलाकार नग्नता के रहस्य-रोमांच को कैद करना चाहते हैं। उसे दर्शक तक स्थानांतरित करने के लिए यह ज़रूरी है।

नग्नता का रतिकर्म से रिश्ता शाश्वत है। यह इतना हावी रहता है कि किसी भी तरह की नग्नता को देखकर लोग उसी चरम बिंदु पर पहुँच जाते हैं, जबकि उससे इतर भी नग्नता का इस्तेमाल होता है। दिगंबर साधुओं को देखिए। वैसे इस प्रसंग में एक दिलचस्प वाकया बताना चाहती हूँ। मेरी एक दोस्त गाड़ी चला रही थी। अचानक एक लाल बत्ती पर वह रुकी जहाँ से नागा साधुओं का जुलूस गुज़र रहा था। उस जुलूस का नेतृत्व एक युवा और निहायत खूबसूरत साधु कर रहा था। ठीक लाल बत्ती पर मेरी दोस्त की नज़र उस साधु की नज़र से टकराई। क्षण भर के लिए मेरी दोस्त हतप्रभ रह गई। उसे समझ नहीं आया कि वह क्या करे, किधर देखे। धार्मिक कर्म में लगे हुए उस साधु की नज़र सपाट थी।

शायद उतनी ही सपाट नज़र 12 वीं सदी की अक्का महादेवी की रही होगी और 14 वीं सदी की लाल देद की भी। उनकी नग्नता पर उँगली उठी, टीका-टिप्पणी हुई, लेकिन उन्होंने अपनी राह नहीं छोड़ी। नग्नता का चुनाव उनका प्रतिरोध था। मुझे नहीं मालूम कि उस प्रतिरोध में रोष कितना था और इस दृष्टि से उनके पदों को गहराई से पढ़ना चाहती हूँ। इतना समझ में आता है कि उनकी भक्ति और धार्मिकता  की पराकाष्ठा के रूप में सबसे पहले उनके निर्वस्त्र रहने का ज़िक्र यों ही नहीं किया जाता है। औरत होने के नाते उनकी नग्नता के आयाम बढ़ जाते हैं।

आनंद का स्रोत न भी कहें तो बहुत बार आनंद हासिल करने की पूर्व शर्त के रूप में नग्नता को देखा जाता रहा है। बहुतों को यह मानने में संकोच नहीं है कि नहाते समय, तैरते समय, समुद्र तट पर धूपस्नान करते समय, सोते समय नग्न रहना आनंददायक है। बहुत लोग इसकी वकालत करते हुए मिल जाएँगे। प्राकृतिक चिकित्सा के क्रम में तो मैंने इसका उल्लेख कई बार सुना है। विदेशों में तो Nude Beach कई मिल जाएँगे। दौड़, साइकिल की सवारी जैसे कुछेक खेल भी नग्न होकर खेले जाते हैं।

निजता और नग्नता का करीबी रिश्ता जाना-पहचाना हुआ है। यह भी सही है कि सार्वजनिकता और नग्नता का हमेशा 36 का संबंध नहीं है। यह नग्नता के स्वरूप पर निर्भर करता है। यदि यह विरोध प्रदर्शन के हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा हो तो वहाँ उसे अनिवार्य रूप से सार्वजनिक होना पड़ता है। 2004 में मणिपुर में थंगजाम मनोरमा बलात्कार कांड नग्न विरोध प्रदर्शन के कारण खासा चर्चित हुआ था। वहाँ मध्यम आयु वर्ग की औरतें सड़क पर निकलीं, तो खेल के मैदान में परस्पर विरोधी टीमों के समर्थक युवा भी दौड़ पड़ते हैं। नग्नता को अपना परचम बनाना प्रतिबद्धता के बल पर ही संभव है।

स्वेच्छा शामिल हो तो नग्नता का सौंदर्य बढ़ जाता है। इसकी गवाही किसी से भी ली जा सकती है। उस वक्त शर्म दूर-दूर तक नहीं फटकती है। शर्म का पदार्पण शायद अनधिकार प्रवेश से होता है। वीनस की मूर्ति की मुद्रा कुछ यही जतलाती है।

यदि नग्नता की उदात्तता को हम ठीक से समझ पाएँ तो शायद देवी-देवताओं की नग्न मूर्तियों के साथ नग्न मानव शरीर को भी सराह पाएँगे। वह समय ऐसा होगा जब वैध-अवैध के तराजू में नग्नता नहीं तोली जाएगी। उसे जर्मनी के म्यूनिख शहर की तरह सरकारी संरक्षण मिला है या नहीं, इसकी चिंता से परे होगा। वह किसी की निजी संपत्ति नहीं होगी, बल्कि आज़ादी के सवाल से बँधी होगी। तब ऐल्प के पहाड़ों पर नग्न हाइकिंग के लिए जानेवालों पर पाबंदी का मसला नहीं उठेगा।

मुझे नग्नता के पक्ष में प्राकृतिक और स्वाभाविक का तर्क नहीं चाहिए। जेंडर और यौनिकता पर काम करते हुए इस तर्क की धज्जियाँ हज़ारों बार उड़ाई गई हैं। न ही नग्नता को पवित्र उद्देश्य की आड़ चाहिए। साध्य और साधन की बहस भी बेमानी है। वैराग्य और साधना का चरमोत्कर्ष कहकर इसे सांसारिकता से बाहर क्यों किया जाए ? कपड़े का लगभग लाख साल पुराना इतिहास जानें, मगर उसके भाव या अभाव मात्र से जोड़कर नग्नता को न देखें।


गुरुवार, 12 मई 2016

उलझन (Uljhan by Purwa Bharadwaj)

एक शब्द है उलझन। इसे घिसा-पिटा न कहें तो पुराना ज़रूर कह सकते हैं। जब शादी होकर आई थी मैं तो इस शब्द के एक नए इस्तेमाल से परिचित हुई। मेरी सास अक्सर इसका इस्तेमाल ऐसे करती थीं जो नकारात्मक और निर्णयात्मक कतई नहीं लगता था, मगर मनःस्थिति को एकदम ठीक ठीक बता देता था। शारीरिक स्थिति को भी, खासकर जब वे कहती थीं कि पैरों में उलझन महसूस हो रही है। मैंने इसके जेंडर आयाम पर निगाह दौड़ाई। अपूर्व भी जिस तरह इस शब्द का इस्तेमाल करते थे, उससे यह साफ़ था मेरे लिए कि उलझन केवल औरतों के पल्ले नहीं है। 

इन दिनों अपने को अक्सर उलझा हुआ पाती हूँ। लगता है कि दिमाग की चाल सुस्त हो गई है। साधारण से काम में भी ज़ोर लगाना पड़ रहा है। दोस्त कहते हैं कि तनाव है, दबाव है, जबकि उसकी कोई ठोस वजह ही नहीं है। उम्र का असर कहकर छूट लेने की उम्र में नहीं हूँ और न ही किसी गंभीर बीमारी की आड़ ले सकती हूँ। फिर यह उलझन सी क्यों है ? लंबे समय तक रहनेवाली उलझन नशा बन जाती है, क्या उसका डर लग रहा है मुझे ?

"उलझन सुलझे ना !" गाना मुझे याद आ रहा है। उसकी अगली पंक्ति है "रस्ता सूझे ना", लेकिन मुझे यह नहीं महसूस होता है। इस उलझन में अकबकाना है, बेचैनी है, फिर भी न भटकन है और न दरवाज़े बंद होने का अहसास है। सोचती हूँ कि अनिवार्यतः उलझन के साथ सुलझन क्यों आता है ? उलझन का विपरीतार्थक भर नहीं है सुलझन, बल्कि उसका उपाय है, उससे निज़ात पाना है. मतलब उलझन ऐसी स्थिति है कि उसके चंगुल से जल्दी से जल्दी निकलना ज़रूरी है !

नहीं, ज़रूरी नहीं है। बहुतों को उलझन रास भी आती है। उनमें किसकी तादाद अधिक है, इसका बाजाप्ता आँकड़ा नहीं मिलता है, लेकिन अमूमन औरतों पर तोहमत लगती है। औरतों को भी यह ताना सुनने की आदत हो जाती है कि तुम उलझन मोल लेती हो। वहाँ उलझन आफत का पर्यायवाची हो जाता है। यहाँ तक कि यह तर्क खीचकर औरत को ही उलझन की प्रतिमूर्ति साबित कर देता है। 

मेरे हिसाब से मानसिक स्वास्थ्य का मसला बन सकती है उलझन, परंतु उसमें निःशेष नहीं होती है। यह सृजन का उत्स भी हो सकती है या उसकी पूर्व अवस्था। मैं अपनी उलझन को इसी तरह देखने की कोशिश कर रही हूँ। इसे अव्यवस्था नहीं कहना चाहती हूँ। यह नियंत्रण छूटना नहीं है। ठहराव से भिन्न है। 

शुक्रवार, 1 जनवरी 2016

लेखा जोखा (Lekha-Jokha by Purwa Bharadwaj)

नया साल आ गया। वर्षांत अभी अभी हुआ है और पूरे साल का लेखा जोखा लेने में अधिकांश मुब्तला हैं। लोग से अधिक संस्थान व्यस्त हैं। उनका वित्तीय लेखा-जोखा रखना समझ में आता है, वह पारदर्शिता के लिए ज़रूरी है। काम का फायदा-नुकसान कितना हुआ, निवेश के मुकाबले असर हुआ या नहीं, लक्ष्य समूह तक बात पहुँची या नहीं - सबका जायज़ा लिया जाता है।  मैं लंबे समय तक गैर-सरकारी संस्थानों से जुड़ी रही हूँ तो उनकी चिंताओं से वाकिफ़ हूँ। मार्च की तैयारी में वर्षांत गुज़रता है। जब तक कोई शगूफा न छूटे यह लेखा-जोखा रुटीन में शामिल रहता है और आम तौर पर लोगों की निगाहों से ओझल रहता है।

वर्षांत का लेखा-जोखा जो एकदम सामने आता है वह है अख़बार, पत्र-पत्रिकाओं, टेलीविजन चैनलों, रेडियो आदि का। आजकल  फेसबुक और व्हाट्स ऐप वगैरह सब इसमें जुट गए हैं। क्या आभासी क्या ठोस माध्यम, सब में होड़ लगी है कि कौन अनूठे तरीके से लेखा जोखा लेता है। उसे प्रस्तुत करने में जिस जोशो खरोश से सब भिड़े रहते हैं वह बहुत स्वाभाविक नहीं लगता है। एक किस्म का नकलीपन मालूम होता है। या यह कहना अहंकारपूर्ण होगा। जो हो, मुझे इस प्रयास में कहीं न कहीं ईमानदारी की कमी लगती है। 

कल ही इंडियन एक्सप्रेस पढ़ रही थी। उसमें चार लोगों से बातचीत की गई थी - 2015 के लिए जो उन्होंने सपने देखे थे उनकी परिणति क्या रही, इसको लेकर। पूरे साल के वैयक्तिक संघर्ष, बृहत्तर राजनीतिक परिदृश्य, लालफीताशाही, घरवालों की बीमारी से लेकर मीडिया की भूमिका तक की झलक हमें मिली। किसी  का सपना पूरा हुआ, किसी को आंशिक सफलता मिली तो किसी को रास्ता बदलकर भी कुछ हाथ न लगा तो किसी ने दूसरों में भी सपने जगाए। मैं सोच रही थी कि ज़िंदगियों को टुकड़े-टुकड़े में बाँटकर लेखा-जोखा लिया जा सकता है क्या ! मतलब मेरा एक साल कैसा रहा, दूसरा कैसा रहा, इसी तरह तीसरा या दसवाँ-बीसवाँ साल कैसा रहा, इसमें मेरा लेखा-जोखा  होगा या मेरे संदर्भ का या मेरे संदर्भ को गढ़नेवाले कारकों का ? या फिर नीतियों का और राजनीति का ? 

मेरे हिसाब से यह तय होगा कि निशाने पर कौन है - इंसान, परिवेश, विचारधारा या समय. तात्पर्य यह कि लेखा-जोखा किसी का भी लिया जा सकता है। सालाना लेखा-जोखा को मारें गोली, हम रोज़मर्रा की गप्पबाज़ी को लें। निशाने पर अधिकतर इंसान रहता है। उनमें प्रतिशत अपनों और परिचितों का अधिक रहता है। अनजान और दूर के लोग निशाने पर आते हैं तो दाँतों को हम तनिक कम पिजाते हैं, अपने गलित नख-दंत का इस्तेमाल उतना नहीं करते हैं। फिर शुरू होने भर की देर रहती है। आधे घंटे क्या, मिनटों में खड़े-खड़े अगले को नाप लेते हैं हमलोग। उसका पूरा सरापा, पूरा इतिहास-भूगोल सामने आ जाता है। वह लेखा-जोखा कब निंदा-पुराण में बदल जाता है, हमें पता ही नहीं चलता है। 

वस्तुनिष्ठता लेखा-जोखा का अनिवार्य अंग मानी जाती है, लेकिन वह अक्सर दुर्लभ की कोटि में आती है। इसकी वजह यह है कि इस पनघट की डगर बड़ी फिसलन भरी है। अलग अलग समय पर एक ही वृत्तांत अलग अलग नुक्ते के लिए काम आता है, यह भी अनुभव रहा है। इन दिनों ब्यौरों का बेजा इस्तेमाल मन खिन्न भी कर देता है। वस्तुनिष्ठता कब आत्मनिष्ठ हो जाती है, कब कुत्सा, ईर्ष्या, लोभ और द्वेष आदि में बदल जाती है - यह पता ही नहीं चलता है। हम भी कब उसमें धँस जाते हैं खुद हमें पता नहीं होता है। अलबत्ता अपने द्वारा किए गए लेखा-जोखा की वस्तुनिष्ठता का ढोल हम अवश्य पीटते रहते हैं।

देखा जाए तो लेखा-जोखा रखना कोरी रस्म अदायगी नहीं है, न ही यह कोई नई परिघटना है। धर्म से जुड़ी अवधारणाओं में पूरे जीवन का लेखा-जोखा रखा जाता है। स्वर्ग-नरक, जन्नत-दोजख आदि की अवधारणाएँ यही तो हैं। इस काम के लिए देवता भी मुक़र्रर किए जाते हैं। हमारी संस्कृति में ही नहीं, अन्य (विदेशी से बेहतर शब्द है यह) संस्कृतियों में भी लेखा-जोखा रखनेवाले देवी-देवता मिल जाएँगे। अलग देवी-देवता की नियुक्ति न भी हो तो ईश्वर है न ? पल पल का लेखा जोखा रखनेवाला। इसलिए उसकी ताकत बढ़ जाती है।  हम लेखा जोखा रखनेवाले इंसान ही नहीं, भगवान को भी रिश्वत देने लगते हैं। सच पूछो तो खासा पेचीदा है यह लेखा-जोखा। इसमें धर्म का पेंच लगा है, राजनीति है ही। 

मुझे डर लगता है इससे। (इसका यह मतलब कतई नहीं है कि मैं अपने आपको इस धार्मिक बना दिए गए कर्त्तव्य से पूरी तरह मुक्त मानती हूँ. खुद संलग्न होने के बावजूद मुझे डर लगता है।) इसकी आवृत्ति कितनी बार होती है ! कभी रिश्तों का लेखा-जोखा, कभी मान-अपमान का, कभी प्यार-मनुहार का, कभी गुस्से की मात्रा का तो कभी चूक के अहसास का। यदि अनुपात ठीक रहे तो हमें इत्मीनान हो जाता है, वरना यह लेखा-जोखा चैन नहीं लेने देता।

एक वक्त था जब मेरा हिसाब पक्का हुआ करता था। मैं किसी को मुँह नहीं लगने देती थी। अपनी स्मृति पर इतना भरोसा हुआ करता था मुझे। आज की तारीख में स्मृतियों का  लेखा-जोखा तो मुझे उलझाए ही रखता है। इसका अहसास मुझे धीरे धीरे होने लगा था। घबराहट हावी होने के पहले ही पिछले साल मैंने डायरी में मुख्य मुख्य बातों को दर्ज करना शुरू कर दिया था। लेकिन उससे बहुत फायदा हुआ नहीं क्योंकि मुख्य बातों में ज़िंदगी नहीं होती है। ज़िंदगी तो मुख्य बातों और घटनाओं की छोटी छोटी बारीकियों में पिरोई होती है। वह यदि फिसल गई तो लेखा-जोखा किसका होगा ?

यह साल कैसा होगा, इसकी आशंका से मुक्त होने का प्रयास कर रही हूँ। मन ही मन तय कर रही हूँ कि NO लेखा-जोखा ! खासकर इसमें जो जोखना शब्द है उसका तौलनेवाला अर्थ मिटा देना है मुझे। जो है उसे बहने दो। मेंड़ बनाकर उसका लेखा-जोखा क्या रखना ! जो है साथ चले, साथ रमे और साथ टिके। बस ! 

लोगों को लेकर यह इच्छा बलवती होती जा रही है। अपूर्व से बात हो रही थी कि हमें दिल्ली आए जितने साल हुए उस दौरान कितने लोग छूट गए। बात फिर हर एक साल पर आ गई। गिनो तो मन घबराता है। डायरी के पन्नों पर नाम बदस्तूर हैं। फेसबुक पन्ना किसी तारीख पर आकर अटक गया है। फोन में नंबर लिखे हुए हैं जिनको मिटाने की हिम्मत नहीं है मुझे। चाहती भी नहीं हूँ। लेकिन यह क्या ? क्या हम अपने दिल्ली वास (प्रवास कहने का मन नहीं है) का लेखा-जोखा रखने लगे ? और उसके नाम पर छूट गए लोगों का ?

कुछ नहीं करना है मुझे। मन करता है कि माँ-पापा के पास चली जाऊँ। भैया से पहले की तरह लडूँ या ज़िद करूँ। और गुज़रे दिनों का कोई लेखा-जोखा न हो ! माँ टाल से लकड़ी लाए और हम सब तापें। 

(पुनश्च : एक संशोधन ज़रूर चाहूँगी। वह यह कि आग तापते समय अपूर्व की गोदी में ऊनी चादर में लिपटी हुई बेटी वैसी ही बैठी दिखे जैसे मैं पापा की गोदी में बैठती थी !)